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________________ ५४ ] बुद्धि-विलास वध जु सस्त्र की घात, करै कोय सो सव सहै। यह जाचनां विष्यात, काहू 4 मांगे नहीं ॥४१३॥ यह अलाभतू जांनि, भोजन जवै मिले नहीं। तव मन मैं दुष प्रांनि, कोप विलाप करै न मुनि ॥४१४॥ रोग-परीसह ऐह, महारोग करि ग्रस्त ह। जो अपनौं निज देह, तौ करिवो न कहै जतन ॥४१५॥ त्रिण सयरस सुरिण मित त्रिरणां वहुरि कंटक अधिक। लगै देह के संत, टालें नाहीं दुष सहैं ॥४१६॥ मल-प्रीसह सुनि जान, लागै मैल सरीर के।। तऊ न करै सनांन, वाकौं भूषन-सम गिनें ॥४१७॥ पुरसकार सतकार, ऐक जांनि को काज मैं। विनय न करै लगार, तौ अपमान सहै मुनी ॥४१८॥ प्राया' सुनहु सुजांन, आप पढयो ह वहुत जो। तौ न करै अभिमान, सांत-भाव राषै सदा ॥४१६॥ यहै कहैं अग्यांन, जो निज होय प्रवीन अति । क्रोध न कर प्रमान, जो कोऊ मूरिष कहै ॥४२०॥ यहै अदरसरण ठीक, ग्यांनवांन निज तप करत । रिधि नहि होय नजीक, तौ न विचारै वात यह ॥४२१॥ मैं असो तप कीन, तो हू रिद्धि' न उपजी । यह न विचार दीन, तप दीक्ष्यादिक झूठ है ॥४२२॥ दोहा : अहो हमारे नाथ तुम, थूलभद्र मुनिराय । हम ते ऐ प्रीसह अवै, सही कौंन विधि जाय ॥४२३॥ चौपई : तव वन कही ये पेट तौ भारी' हौं, अगिलै जनम नरकि ही परिहौं। यह सुनि सव मिलि वात न मांनी, वा सौं वुरी करी मन मांनी ॥४२४॥ वह मरि प्रेत भयो सव जान्यौं, सवकौं दुष दोन्हौं मन मान्यौं। तब वा सौं मिलि विनती कीन्ही, तुम दुष देत सु सव हम चीन्ही ॥४२५॥ ४१६ : १ प्रग्या। ४२२ : १रिधि। ४२४ : १ भरि । २ ऊपजी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jaineli
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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