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________________ बुद्धि-विलास [ ५३ जुड़ि किवाड़ सव मिलि जीमंत, सो विधि चली जात अवसंत । वारह वरष विताये येम, फुनि आये मुनि धारी नेम ॥४०॥ दषिण तें जु विसापाचारिज, मुनि दै प्रादि करत सुभ कारिज । तिन मैं थूलभद्र फुनि सव मिलि, सिक्षि एक कौं कही जाहु चलि ॥४०१॥ देषहु चलन धर्म सव वनको', ज्यौ संसय भाजै सव मन को। वह सिषि गयो मुनिनु के यांही, करी वंदना मन हरषांही ॥४०२॥ वनु' प्रति वंदन कीन्ही नांही, वह वलटौ आयो वन यांही। सर्व हकीकति वनको कही, थूलभद्र वोले तव यही ॥४०३॥ प्राछित ल्यौ गुरभाषित सवै, करि छेदोपसथापन अवै'। सव ही मिलि के दीक्ष्या२ लेहु, यहां रहे सो विनि संदेहु ॥४०४॥ तव सव कही अवै मुनि-ईस, सहि न सके प्रीसह वाईस । तिनके नाम वहुरि विधि सुनौ, कैसे सहैं सु तुम ही भनौ ॥४०॥ सोरठा : षुध्या त्रषा' अरु सीत, उक्ष्म दंस मंसक बहुरि । नगनपनौ अति भीत, ऐ षट कैसैं सहि सके ॥४०६॥ अरति परीसह जांनि, घर सूने मधि ध्यान दे। जीवदया जिय ठांनि, पिछले भोग न चितवै ॥४०७॥ स्त्री-परीसह ऐह, सहस पठारा वाडिजुत । सील धरै निज देह, तिय निरषन वोलन तजै ॥४०८॥ चर्या यह तू जांनि, चलें पयादे मग निरषि । कंटक भार्ग प्रांनि, तौहू रहैं उवाहने ॥४०॥ निषद्या है यह ठीक, चले जात रवि अस्त हूं। तिह ठांही तह तीक, वैठी जाहि निसि धीर मुनि ॥४१०॥ सज्या-परीसह जोय, ह धरती कंकर तरणी। ऊंची नीची होय, ताऐं सोवै निसक मुनि ॥४११॥ यहै जांनि प्राक्रोस, मरमछेदि निंदा करै। नाहक दे को दोस, क्रोध न करै सवै सहै ॥४१२॥ ४०२ : १ उनको। ४०३ : १उनु। २ उन। ३ उनकी। ४०४ : १ सर्व। २ दीक्षा। ४०६ : १त्रिषा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainel www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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