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बुद्धि-विलास और · मुनी जे लार गये, तिनहूं सवनं प्राछित लये।
जथाजोग्य गुर-आग्या पाय, तप कोन्हौं तिनु मन वच काय ॥३८६॥ दोहा : नही गये दक्षिण दिसा, रहे यहां मुनि संत ।
थूलभद्र फुनि रायमल, इन दै प्रादि महंत ॥३८७॥ चौपई : रहे मुनी जे विना विचार, यही मालवा देस मझार ।
दुरभष्य पड्यौ सु संसय नांहि, अति भयभीत भये मन मांहि ॥३८॥ नगरी मैं अहार कौं जाय, भूषे मनिष लगें तहां प्राय । करि प्रहार यक मुनी निसंक, प्रावत लषि दौरे वहु रंक ॥३८६॥ सव मिलि वाको पेट विदारि, षायो काढि जु लयो प्रहार। तव श्रावकनि सुनी यह वात, कंपन लगे जांनि उतपात ॥३०॥ जाय मुनिनु सौं विनती करो, अहो सुनहु हम यह चितधरी। लाठी पात्रा राषो हाथि, ले प्रहार जावो मिलि साथि ॥३६१॥ वन मैं भोजन करिये भलैं, तो ऐ रंक टलैं तो टलैं। असे हूं कितेक दिन कीन्ह, तौ हू रंकनि अति दुष दीन्ह ॥३६२॥ तव फिरि पचन मिलि यम कही, निसि भोजन ले जावो सही। प्रातः प्रहार करों मुनिराज, सीत उक्ष्म' की करहुँ न लाज ॥३६३॥ असे करत ऐक निसि मुनी, प्राऐ इक श्रावग के गुनी। डरि इक तिय राक्षस-सम हेरि, गर्भ गिरयो ता को तिह वेरि ॥३६४॥ यह फुनि सुनि पंचनि मिलि प्राय, करि मुनिनु तै अरज सुभाय । हे महाराज्य सुनौ अव ऐहु, आधो प्राधो कम्मल लेहु ॥३६५॥ सिर परि धारो वेठो ताहि, तौ हमरो यह दुष मिटि जाहि । तव जैसे ही वनु मिलि करी, मरजादा सव ही परहरी ॥३९६॥ सव मिलि करी न काहू चेहरयौ, तव ते अर्धफालक-मत ठेहरयो । या विधि सौं प्रहार ले जांही, वन मैं सीलौ' भोजन षांही ॥३६॥ तौहू रंक वहां' चलि जाय, दुष दे षोसि अहारहि षाय । तव श्रावकनि यहू विधि सुनी, विनयें तुम दुष पावत मुनी ॥३९८॥ गये नगर मैं तिनहि लिवाय, ठौहर सवको दई बताय । पांच सात मिलि इकठां रहैं, भोजन विहरि ल्यात जो चहैं ॥३६॥
२ करो।
३६३ : १ उष्ण । ३६७ : १सीलो। ३६८: उहां।
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