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बुद्धि-विलास
फुनि कछु काल षिपाय, भद्रबाहु सुरगनि गये ।
गुर-पादि कराय, चंद्रगुप्ति पूज्यो करें ॥ ३७५ ॥ कवहु प्रहारहि जात, कव हू वनवास हि करै । तप करि कर्म षियात, इम वीते वारह वरष ॥ ३७६ ॥
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चौपाई : और विसाषाचारिज आदि, सिषि हजार वारह कछु वादि । सव ही दक्षरण दिसि को जाय, पाल्यो धर्म सु मन वच काय ॥३७७॥ वो अवधि विसाषाचारिज, संघ जुत जहां पादिका - वारिज | प्राय पूजि पादिका जुपति' सौं, चंद्रगुपति मुनि मिले भगति सौं ॥ ३७८ ॥ वृकी तुम प्रहार सिंह रीति, वन मैं लेत कहौ करि प्रीति । चंद्रगुपति कही नगर वसंत, वन मैं तहां प्रहार करंत ॥ ३७६ ॥ पुनि जे आये मुनि विनि वास, तिनु तिह दिन कीन्हौ वपवास' । दिवसि पारणे के अनगार, किते गये पुरि लैन प्रहार ॥ ३८० ॥ तिन मैं यक' पीछी धरि तरु पैं, लेय प्रहार गयो वन गुर पै । यादि आ गई पीछी जव हो, उलटौ लैन चल्यो वह तव ही ॥ ३८१ ॥ तरु परि पीछो लषी महांन, लष्यो न पुर कौ प्राही ठांन । त्व यह वात सर्व गुर पासि, श्राय' कही जिम भई प्रकासि ॥ ३८२ ॥ वोले गुर तुम विना विचार, लीन्हौं मायामई पैं तुम चंद्रगुपति धनि मुनी, गाढे रहे धर्म मैं तुम्हरौ लषि के गाढ अपार, देवि जुक्ति सौं दयो पैं या यह प्राछित भयो, सो तुम मुनि-पद धारो' नमो ॥ ३८४ ॥ afratern नवें', दीक्षा लीजे फिरि तुम । तब ऐ गुर के उर धरि वैन, दोक्ष्यार चंद्रगुप्ति, लई अन ४३८५ ॥
प्रहार |
गुनी ॥ ३८३ ॥ प्रहार ।
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३७५ : १ पादिका । २ चंद्रगुपति ।
३७८ : १ जुगति ।
३८० : १ उपवास ।
३८१ : १ इक ।
३८२ : १ श्रई ।
३८४ : १ धारौ । ३८५ : १ जब ।
२ दीक्षा ।
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