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________________ ५० ] बुद्धि-विलास वूझी लरिका ते मुनि, याकी अवधि वताय । लरिकै फुनि' मुख तैं दये, वारह वरष जताय ॥३६३॥ अंतराय करि के फिरे, उलटे ही मुनिराय । आये वन मैं संघ-मधि, करत विचार सुभाय ॥३६४॥ चौपई : ताही समये निमत विचारी. भद्रवाहु वोले तिह वारी। सव ही मुनि सुनिये गुनपाल, परिहै वारह वरष दुकाल ॥३६५॥ ता ते दक्षिण दिसि कौं चलें, वा दिसी धर्म सधैगो' भले। तव वनमैं२ ते आधे मुनी, सांची मांनी जो गुर-भनी ॥३६६॥ तिन मैं भद्रबाहु अनगार, दूजे चन्द्रगुप्ति' व लार । ऐ तौ = उघ्रांन२ वन गये, लषि इक गुफा तास ढिगि रहे ॥३६७॥ दोहा : भद्रवाहु तो अवधि लषि, लियो सकल संन्यास । तप करि काल षियांवहीं, करि करि के उपवास ॥३६८॥ चौपई : तहां करत दोऊ उपवास, काल षिपावत धारि हुलास। फुनि मुनि भद्रवाहु यह कही, जो पुर ग्राम' नगर है नही ॥३६६॥ तौ प्रहार कौं वनि मुनि जाय, जोग मिलै तौ तहां कराय । असैं कही जिनागम मांहि, सो हू करिये दूषन नांहि ॥३७०॥ सोरठा : यह सुनी गुर के वैन, चंद्रगुपति वन जात निति । तव अहार कौं दैन, वन देवी इक आय करि ॥३७१॥ कवहू भोजन ठांनि, अंतरीछि वह ह गई। कवहु अर्केली प्रांनि, वैठी भोजन दैन कौं ॥३७२॥ इँह विधि लषि मुनिराय,अंतराय करि करि फिरे। तप किय मन वच काय, काहू भांति चिगे नही ॥३७३॥ गाढ परीक्षा मांहि, लषि देवी नगरी रची। तहां प्रहार करांहि, मायामय श्रावगनि के ॥३७४॥ ३६३ : १फिरि। २बताय । ३६६ : १ सधगौ। २ उनमैं । ३६७ : १ चंद्रगुपति । २ उद्यान । ३६६ : १ ग्राम। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jaineli
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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