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________________ बुद्धि-विलास [ ४६ सो ही जु तीरथ जांनि फुनि जैनी न हूं तंह कोय।। जिन-धर्म दक्षिण दिसि रहैगौ जाय हे भवि लोय ॥ कूकर कनक के थाल मै षातौ लष्यौ तें पीर । फल जांनि छोटी जाति लषिमी' वांन है हैं वीर ॥३५५॥ गज परि' लष्यो मरकट चढयो फल यहै कुल में हीन । व भूप तिनके दास उत्तिम कुल तणे ह्व दीन । मरजाद तजत लष्यो उदधि सो अव जु ह्व भूपाल । अन्याय करि लछिमी सवनि की हौं हि घूटनवाल२ ॥३५६॥ वहु वोझ को रथ वाछडे बैंचते देषे सुद्ध । फल तरुण वर्षादिक' करै नहि करें जे व वृद्ध ॥ सुत लष्यो नृप को चढचों ऊट सु फल जिके नृप लोय । निज धर्म तजि हिंसावि-कर्म सु करहिं लज्जा षोय ॥३५७॥ देषी ढकी' नृप धूलि तं रतनां तरणी जो रासि । फल मुनी प्रापस मांहि करि हैं ईरषा परकासि ॥ फुनि जुद्ध-काले गजनि को देष्यो सु फल ये मेघ । नहि वृष्टि मनवंछित करैं रहिवो करै उद्वेग२ ॥३५८॥ फल यम सोलह सुपिन को, सुनि नृप भये उदास । चित वैराग विचारि के, दीक्ष्या' ले मुनि पासि ॥३५६॥ रहन लगे सव संग ही, करत' तपस्या घोर । फुनि जु भई सो हू सवै, सुनहु कथानक और ॥३६०॥ ऐक दिवसि प्रहार कौं, श्रावग के घरि जाय। तहां ऐक अचिरज' लष्यो, भद्रबाहु मुनिराय ॥३६१॥ लरिका देष्यो पालने, वोलन की विनि सक्ति । जाह जाह असे कही, व मुनि अचिरज-जुक्ति' ॥३६२॥ दोहा : ३५५ : १ लषमी। ३५६ : १पर। २ लूटनवाल । ३५७ : १ वरतादिक । २ऊंट। ३५८ : १ लषी। २उदबेग। ३५६ : १दीक्षा। ३६० : १ कर। ३६१ : १ प्रचिरिज। ३६२ : १ जुक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelit www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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