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बुद्धि-विलास या नगरी उजेरिण कौ, चंद्रगुप्ति नृप नाम । धर्म-ध्यांन मैं निपुन निज, वहुरि देस पुर ग्राम ॥३४७॥ एकै निसि सोलह स्वपन', लषे जवे महाराजि । प्राय सर्व मुनि कौं कहे, फल पूजन के काजि ॥३४८॥ भद्रवाहु भाषी नृपति, फल सुनिऐ चित लाय । प्रावत इँह अव' काल मैं, असें ह्व है राय ॥३४६॥
सोलह स्वपन'-वर्नन' छद गीता : स्वर-वृक्ष की साषा षिरत देषी स्वपन मैं भूप,
फल यह सुनौं प्रागै नृपति दीक्ष्या धरै न अनूप । सूरिज लष्यो जव अस्त होत सु काल पंचम मांहि,
मुनिराज ग्यारह अंग चौदह पूर्व धर ह्व नांहि ॥३५०॥ दोहा : चन्द्र जु देष्यो छिद्रजुत, ताको फल यह जानि ।
जिन-मत मांझि अनेक मत, फटि हैं लोजे मांनि ॥३५१॥ छद गीता : तुम सर्प' वारह फरण तरणौं, देष्यो अहो भूपाल ।
फल लषहु वारह वरष को, पड़ि है वहुर भषि-काल ॥ उलटौ विमान जु लष्यौ, जात सु रहै पंचम काल । ता में विद्याधर स्वरमुनी, चारण न पावहि हाल ॥३५२॥ ऊग्यौ लष्यौ रौड़ीकमल सो, वैस्य जिनको धर्म । पालि है फुनि छत्री' सु, ब्राह्मण तजें जिन पासर्म ॥ नांचते देखे भूत सो नर से यह स्वर२ नीच । प्राग्या तणौं देष्यो उद्योत सु जिन धरम के वीच ॥३५३॥ उपदेस जिन-भाषित करन वारे कहुं कहु होय । मिथ्यत जै है फैलि सो यामैं न संसय कोय ॥ देष्यो सरोवर वीच मैं सूको सु पाणी अंत । फल सुनहु जन्म कल्यांन आदि सुक्षेत्र जांनि महंत ॥३५४॥
३४७ : १ चंद्रगुपति। ३४८ : १ सुपन। २ बूझन । ३४६ : १ अब इंह।। ३५० : १ स्वप्न । २ फल बनन। ३५२ : १.सरप। २ सुर ३५३ : १षित्री। २ सुर ।
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