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बुद्धि-विलास
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फुनि वहु जानत पदारथनि के सरूप,
देवनि के मांनि धारै निमत सुग्यान हैं। कुंदकुंदाचारिज गुरू के पद-सेवन तें,
पागम प्राचार गृथ मांझि सावधान हैं। वै ही इंद्रनंदि रच्यो संसक्रत नीतिसार,
भाषा वषतेस करी ताही के प्रमांन है ॥३३८॥
दोहा :
दोहा :
अथ विसंघ उतपति-वर्नन यां ही मत्त' मैं नीसरे, संघ जिते जो और। तिनहूं की उतपति वहुरि, सुनहु ठिकांनौं ठौर ॥३३६॥ प्राभा यन मै पाइयतु', कछुक यक जैन प्रकास । ता से इनकौं मुनिनु मिलि, भाषे जैनांभास ॥३४०n
अथ संघ-नांम-वर्नन इक स्वेतांवर संघ फुनि, दूजौ द्रावड़ जानि । ज्यायनीय अरु कासटा, निपछ पंचमौं मांनि ॥३४१॥ तिन मैं तें जे नोकसे, मत कितेक हठ ठांनि । तिनहूं की प्रागै कछू, कहिहौं कथा वषांनि ॥३४२॥ निकसे स्वेतांवर पथम, जे जे ठानी रीति । कहौं गृथ अनुसार तै, सुनिऐ भवि करि प्रीति ॥३४३॥
.. अथ भद्रवाह चरित्रे न उक्तं भद्रवाहु के चरित मैं, जे भाषी मुनिराय । सौ सव वाही गूथ की, भाषा धरी वनाय ॥३४४॥ गोवरधन मुनि के भये, भद्रवाहु सिषि सार । पाठी ग्यारह अंग के, चवदस' पूरव धार ॥३४५॥ तिनकै संगि सदा रहैं, मुनि चौवीस हजार। नगर अवंती के निकटि, मालव देस मझार ॥३४६॥
दोहा :
३३६ : १ मत । ३४० : १पायइतु। २यक । ३४५ : १ चउदस ।
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