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बुद्धि-विलास जिन जनमादिक तिथि फुनि क्रिया, वहुरि महींना सो मुषि लिया। जोग करण अर वार नषित्र, ऐ प्रधान मति गिणहु विचित्र ॥३२७॥ चववा द्वे घटिका निसि रहई, तव पूर्वान' वंदना चहई । दोय घड़ी मध्यांन करांही, प्रभु-वंदन करि मन हरषांही ॥३२८॥ च्यारि घड़ी को है अपरांन', करि वंदना यहै परमांन । नमैं२ प्रावै नजरि नषित्र, तव समायक तजहु विचित्र ॥३२६॥ धर्म-काजि तिथि अधिकी' होय, सो ही काम तरणी गिरिण लेहु ।
आदि अंत मध्य को भेद, करि सक्कति ते तजो विनि षेद ॥३३०॥ जिहि तिथि विष जु किरिया कीजे, वह किरिया ही मांनि कहीजे । क्रिया करण को ह्व नहि काल, प्रामादिक' कौं ह जो चाल ॥३३१॥ तौ घटिका द्वै पहली क्रिया, करि लीजे दूषन नहि भिया।
जो प्रमाद करि भूलि गऐहु, तौ घटि द्वै पाछे करि लेहु ॥३३२॥ दोहा : दिनि घटिका छह चढि चुकै, तव स्वाध्याय सु प्रादि ।
किरिया सारो कीजियौ, पहलै करहु न वादि ॥३३३॥ चौपई : भाषत ईद्रनंदि मुनिराय, पूर्वाचार्यनु को मत पाय ।
थोड़ी सो मारग यह कह्यौ, जो विस्तार लष्यौ तुम चहौ ॥३३४॥ तौ वनके जो कीन्हे गृथ, तिन मै देषि लेहु सुभ पंथ । तीर्थकर-मत कौ अभिप्राय, सर्व कौंन करि जान्यौ' जाय ॥३३॥ ता ते वन की प्राग्या संत, मांनै ते सुष लहै अनंत । या भव पर-भव-फल सुभ पाय, कर्मि-कर्मि सिव पहुचै जाय ॥३३६॥ असैं सौभा करि वह मुनी, इंद्रनंदि प्राचारिज गुनी।
जग मांहि जयवंतौ रहै, फुनि कैसौ है सौ कवि कहै ॥३३७॥ कवित्त : परमत-वादी गजघटा दूरि करिवे कौं,
वांनी जाकी जगत मैं सिंघ के समान है।
३२८:१ पूर्वाह्न।। ३२६ : १ अपराह्न। २ नभ। ३३० : १ अधकी। ३३१:१ ग्रामांतर । ३३३ : १ दिन। ३३५ : १ उनके। २ A जोन्यौ। ३६ : १ उनकी।
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