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________________ बुद्धि-विलास [ ४५ भंड कहे मांटी के वासरण भाजन कांसी पीतल मांनि । तहां अहार ले न नहि वर ज्यौ दे सोही वह उत्तिम दांनि ॥३१७॥ श्रावक जो कदाचि असो ह भाजन भंड तास घरि सुद्ध । व पाषंड़ी निंदनीक प्रति मुनिजन तै ते' धरहि विरूद्ध ॥ ता घरि भोजन करै नही मुनि जे धरमातम हैं गुन-षांनि । महापाप ते भरयौ अंन्न लषि करि निदान वह छोड़त जानि ॥३१८॥ सोरठा : नहि भीटत सुमरंत, चित्र काठहू की तिया। तौ सांची तिय संत, छुप क्यो लहै न प्रापदा ॥३१॥ चौपई : चित्रहू' की तिय भीटी होय, सिंह दिन भोजन कर न कोय । जीमि चुक्यो ह्व जो मुनि संत, तौ वेलौ करि दोष हरंत ॥३२०॥ सपरस जिह्वा दोन्ही दंड़, तिह करि जग ठांनै पाषंड़। तातें ब्रह्मचर्य कौं धरै, जती मनुष्य' हर गुरण प्राचरै ॥३२१॥ मुनि श्रावक जो संघ मझारि, करै विघन सिंह देहु निकारि। सर्प डस जो निज प्रांगुली, दूरि किएँ सु वचै विधि भली ॥३२२॥ सम्पक दसर्ण' करिहू सुद्ध, थोड़ो ही तप करत सुयुद्ध । ताही तपतें कटिहै कर्म, तातै पालहु समकित धर्म ॥३२३॥ समकित ग्यान चरित को मूल, या विनि मुक्ति न ह अनकूल । मोषि तणौं निज साधन ऐहु, और नही है भवि लष' लेहु ॥३२४॥ प्रतिकमणौं१ फुनि लौंच करत, चौदसि प्रा प्राय पड़त । तौ तिथि है सराहिवा जोग्य, इनमैं कारिज होय मनोग्य ॥३२५॥ जिह जिह' वातां मैं गुण घणौ, ह ताकौं वलवान सु गिरणौं । या तै सबही तिथि मैं जांनि, चौदसि आठै है अति मांनि ॥३२६॥ ३१७ : ३ उत्तम। ३१८ : १ जे। ३२० : १ चित्रहु । ३२१ : १ मुष्य। २ यह । ३२३ : १ दर्शन। ३२४ : १ लषि। ३२५ : १ प्रतिक्रमरणों। ३२६ : १ जिहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaineli www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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