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दोहा :
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बुद्धि-विलास गुर प्रात दूरि तें देषै', वढि निकटि जाय पद पेषे । अनकूल होय मुनि प्रागै, करि नमसकार अनुरागें ॥३०॥ सेवा तिन को वहु करई, करि सुद्धभाव' अघ हरई।
नहि को या धर्म-समांनौं, यह सकल-सिरोमनि जानौं ॥३१०॥ दोहा : दया करे गुर सिष्य , पुस्तकादि जो देय।
भावसहित दुहूँ हाथि' ले, सिषि वंदना करेय ॥३११॥ चौपई : जौ लौं मरण करै जग मांहि, वचन दीनतां भाई नांहि ।
प्राजीवका निमत्ति जे मुनी, धर्म-ध्यान छाडै नहि गुनी ॥३१२॥
षुध्या करि ह दूवले, मैलौ होय सरीर । ऐ भूषण हैं मुनिनु के, लाज मरै नहि धीर ॥३१३॥ मन करिकै मुनि सुद्ध है सोही सुद्ध कहाय ।
मन विनि तन सुध होत नहि, कोटि सनांन कराय ॥३१४॥ छप्पै: कार्य प्रकार्य विचार जाणते ह सव भाषा ।
सर्व सास्त्र को अर्थकरण' की है अभिलाषा ॥ धर्म तरणौं उपदेस दैनवांरे२ मुनिराई।
ह गुणवान जु कोय ताहि मांनौं सव भाई ॥ फुनि होय सुद्ध मुनि निगुरण हूं, मुद्रा लषि के मानिऐं।
श्रावग सु अवग्या साध की मन वच तन नहि ठानिऐं ॥३१५॥ सोरठा : धर्म तणौं व्यौहार, उपदेसी के पासिर ।
है यातें यह सार, जोग्य वात तुमकौं कही ॥३१६॥ छंद गीता : भक्त विसंघी को श्रावक जो भक्ति जुक्ति करि भोजन देय ।
भोजन' भांड सुद्धता करि के तहां मुनीस अहार करेय ॥
३०६ : १ देष्टं । २ उठि । ३ अनकूल । ३१० : १ भाव सुद्ध । ३११ : १ हाथ। ३१२ : १ नहीं। ३१५ : १ अरथकरण। २ वाले। ३ साधु की। ३१७:१ भाजन। २ भंड।
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