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________________ बुद्धि-विलास [ ४३ कवित्त : दऱ्या-लिंग को स्वरूप' यह जांनिऐं अनूप, विना वस्त्र होय ते दिगंवर कहात है। सिर डाढो मूछनि के केसनि की लौंच करै, कांषादिक वाल वधे नजरि जे प्रात है ॥ प्राभरण नांहि कमडल पीछी हाथ मांहि, धरै यह रूप सव गूंथनि मै गात है। दयं है सुभाव ही कौ कारण प्रतक्ष दीसै, भाव है सु अध्यातम गोचर वतात हैं ॥३००॥ सोरठा : मुद्रा जग में मांनि, विनि मुद्रा नहि मानि' ह। नृप मुद्रा करि जांनि, लघु नरकौं मान वड़ो ॥३०१॥ छद। यह भेद कहूं प्रतिमा के, लषि काछ आदि कछु ताकै । वह स्वेतांवरी जु होई, काष्टासंघी ह कोई ॥३०२॥ ताको वंदन नहिं कीजे, परतिष्टा सुद्ध नही जे। यात वंदन वरजी जे, मुनि की विधि ऐ सुनि लीजे ॥३०३॥ व रूप कुलंगी वाकौ, वंदन न करौ भवि ताकौ । उपदेस तवै विपरीता, तातै वरज्यौ यह मीता ॥३०४॥ दोहा : जिह जिह कारिज तें धर्म', वधै सु करै सही सु। माननीक है ते जती, निंदन जोग्य नही स२ ॥३०॥ छंद चाल : मुनि पैं मुनि कोई आवै, प्रादर करि सिंह वैठावै । प्राधुनिकी विधि कर वांहीं, वढि चालें वरज नाही ॥३०६॥ पाटा पोथी पोंछी वै, विन मांगें नांही छोवै । जव लौं वह संगि रहावे, भिष्या कौं भ्रमण करावै ॥३०७॥ यह धर्म निरंतर भाष्यो, मुनि राजनि सो अभिलाष्यो। फुनि निज गुर के प्रांवन की, विधि कहूं तोहि पांवन की ॥३०॥ ३०० : १ सरूप। ३०१ : १ मान्य। ३०५ : १ घरम। ३०६ : १ छंद। ३०८ : १ होन। २ दिग्गंबर। ३ प्रतक्षा। २ वडे । २ सु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelik
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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