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बुद्धि-विलास ताको नृप वा श्रावक जु होय, क्यौं ही करवा समरथ न कोय ॥२८२॥ लषि वस्तिकांनि' मैं मुवो जीव, पंचेंद्री फुनि लोही अतीव । मुनिवर कौं रे भवि तास मांहि,
पडिकमरणौं करिवो जोग्य नांहि ॥२८३॥ चौपई : मुनि दिगंवर जे गुणग्राही, वांचत है सिद्धांत सदा ही।
ते एते दूषन' कौं टार, तव ही इनके वैन उचारै ॥२४॥ वांचत विख्यान वैठत पार्टी, भूमि क्षेत्र ले सोधिनि रा। ह्र निरजीव तहां ही वांचे, बहुरि विनय तें अति ही राचें ॥२८॥ ते उतकिष्ट' मरण कौं करिहैं, सुभ गति माझि पाव वे धरिहैं। करत वंदना जव प्रभु काजै, ऊंचे प्रागुल' चवलौ' राजै ॥२८६॥ वहुरि समै संध्यारज वर, गृहण सु उलकापातहि परथें । चमकत वीज मेघ वहु गरजें, तवहूं वाचत नहि मुनिवर जे ॥२८७॥ विनहीं काल सुद्ध हू भाष, तेहू फल आछे नहि चार्षे । अध्यातम सिधांत प्राचार', गूथ प्रायश्चित किरियासार ॥२८॥ विनि विधि वाचन तजौ प्रसंगा', फुनि ह कोय विसंघी संघा । तिन हूं के संगि वाचत नाही, यह गुर नीकै सीष वतांही ॥२८॥ करत प्रायश्चित जे मुनि चोषा, साख माझि देखि वह दोषा। 'माफिक गूथ प्रायश्चित देणां'', घटि वढि देय दोष क्यो लेरणां ॥२०॥ गणधरांनि की तो गुर-भक्ति, करि अति नमसकार के जुक्ति । मुनि नवीन दीक्षत ह ताहि, वंदन प्रति वंदनां कराहि ॥२६१॥
मुनि सास्त्र-करता नाम-वर्नन अरिल' : भद्रवाहु श्रीचंद बहुरि जिनचंद है,
तिनको मुनिवर-गन मैं वुधि अमंद है।
२८३ : १ वस्तकांनि । २८४ : १दूषण। २८६ : १ उतकृष्ट । २ प्रांगुल। ३ चउलो। २८८ : १ प्राचार। २८६ : १ प्रसंग। २ संग। २६० : १ 'माफिक दोष प्रायश्चित देरणा'। २ देह। २६२ : १ छंद अरिल।
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