________________
४० ]
बुद्धि-विलास करिए विहार इक रहहि नाहि, गिरणती कौ ब वह गळ्छ मांहि ॥२७३॥ मद मांस मधू विनि मंत्र साधि, वहु करत सिद्धि देवनि अराधि । जे मद प्रादिनु ते होत सिद्धि, ताकौं प्रसिद्ध कहिए नषिद्धि ॥२७४॥ मुनि धारि रहै तन वस्त्र सील, निरगृथ पणे राषै सुडील । त्यागरण है जो निज देह प्रांरण,
नहि जोग्य वख गृहणौ' प्रमाण ॥२७५॥ चौपई : पंच प्रकार वस्त्र करि हीन', जे संजम धर मुनि-तन षींन ।
भीटत राषत दयं न हीन, मांनत तिन्है पुरिष परवीन ॥२७६॥ कवहू लेत नहीं मुष सोधि, ठाढे जीमत दयापयोधि । भेट संघ सौं ले नही रती, ते जग मांही सांचे जती ॥२७७॥ दीक्ष्या' दाता फुनि जु पढावै, प्राचारादिक गूंथ वंचावै। दोषरहित गुणसहित जु होई, ताहि गुरू कहिए भवि-लोई ॥२७८॥ मूल संघ गण गछ्छ सुपात्र, जुक्त होय मुनि जैनी मात्र । सवही गुरु करि मानौं जेह, इनमैं और न करि संदेह ॥२७॥ पुस्तकसंघ वृद्धि के काज, अलप अजाच्यौ धन रिषराज ।
कालदोष करि जे राषंत, तिनकौ दोष नहीं हे संत ॥२८०॥ दोहा : अव फुनि वरसां सैकड़ा, पाछै जाहु सरीर ।
तजै न मारिग सर्वथा, जे विवेकधर धीर ॥२८॥ छद परि : जिंह मुनि को चित ह सदा सुद्ध',
__ लगि रह्यौ पातमां मैं सुवुद्ध ।
२७३ : २ रहहु। २७४ : १ निषिद्धि । २७५ : १ गहणौं। २७६ : १हीण। २७८ : १ दीक्षा। २८२ : १ सुध।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
www.jaineli