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बुद्धि-विलास
[ ३६ छप : सम्यकद्रष्टी' होत२ ग्यान चारित्र धरै विनि ।
सो प्रतिसय करि पात्र होय पाचर्ण३ करें मुनि ॥ मिथ्याद्रष्टि होय ग्यान चारित कौ धारी।
सो नहि पात्र कहात कुमारग को अधिकारी॥ जे होत सुपात्र सुमारगी तिन्है दांन देवो जुगति ।
मति पाषंडी कौं देहु भवि दिऐ वढे मिथ्या कुगति ॥२६६॥ सोरठा : जीरण है जो कोय, प्रतिमा पोथी देहुरा।
फिरि था अति होय, पुंन्य न ऐहू करण तें ॥२६७॥ सवैया : सूतौ तथा चित्त द्वै उदविन्न', करै मल मूत्र किधौ जवही को।
कर्म क्रत्तौ होय निदिहू ताहि, करे नहीं वंदना साध-रतो को॥
ह्व सावधान ज सव ही विधि, धर्म प्रो ध्यान मैं लीन जती को। ___ताही मुनिस कौं वंदना जोग्य, कही करवो सु भलौ२ सवही कौं ॥२६८॥ दोहा : करि नमोस्त निरगृथ कौं, अजिका कौं वंदांम ।
उत्तिम' श्रावग कौं कर, निज मुष तैं इछाम ॥२६॥ भोजन नमरण सु आदि की, जे हैं रीति सुजाण ।
पूर्वाचारिज मांनि ह्व, सोही करहु प्रमाण ॥२७०॥ सोरठा : पूर्वाचार्य उलंघि करै, रोति वोछी अधिक ।
वह मिथ्याती संघि, वड़े पुरिष वंदै नहीं ॥२७१॥ छद पद्धरी : मुनि ऐकाकी जु कर विहार,
पावै नहि धर्म कहूं लगार। दूजे मुनिक रहिजे जु' संग, तव हीये है सुभ धर्म अंग ॥२७२॥ मुनि पांच च्यारि फुनि कहैं। तीन, तिनहीं के साथि मुनि नवीन ।
२६६ : १ दिष्टि । २ होय। ३ पाचरण। ४ कुमारिग। २६८ : १ उदविग्न। २ भलें।
२६६ : १ उत्तम । . २७२ : १ सु। २७३ : १ कहे।
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