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बुद्धि-विलास
वेस्या और दाई फुनि मांगि षांने वाले,
जन मद वेचै पीवै तिन संगि रहे चाय के॥ केते नोंच कर्म करि आजीवका पूरी करें,
इन आदि सूद्रह नैं जीवनि उपाय के। तिन के मुनीस सावधान है जो,
धर्म माझि करै न प्रहार धरि सर्वथा ही जाय कै ॥२६०॥
छद महा मिथ्याती के घर मैं मुनि भोजन नांहि करै इम जांनि । गीता : वनकै' वस्त सदोस वायरै तिह२ कारणि त्याग दुषदांनि ॥
यातै भलो रसोई करि निज जो जीमरण ठानै तौ ठांनि । भाषी अधिक दोष लषि के भवि निश्च नयन कही यह वानि ॥२६१॥ ह मध्यांन समै तवही लषि दीन अनाथ दुषी को जीव । तिनकौं भोजनादि वस्तनि' कौं हित करि के द्रावंत२ सदीव ॥ इह विध करत' सावधांनी जे दयाभाव उर धारि मुनिंद । पूजनीक ते मुनिनु माझि ह करहि प्रसंसा तिनकी इँद ॥२६२॥ मुनिवर होय तावड़े ठाढे फुनि छाया कै मधि आवंत । छाया तैं चलि जात तावड़े काहू काररिण२ जे गुरण संत ॥ काली धरती तें गोरी मधि गोरी तें काली मैं जात । दया जांनि जीवनि की लै करि पीछी सोधत है निज गात ॥२६३॥ रुके होय घर जा गृहस्थ' के वधे होय सुरे आंगन मांहि । विरण त्रिण वहुरि अन्न सूकत इन आदि जु कर्म सदोष लषांहि ॥ भोजन करै नही मुनि ता घरि दोस न ह ता के घरि जाय ।
ठाढे सात स्वास लौं रहि फुनि दाता न हूँ ओर घरि जाय ॥२६४॥ चौपई १ : मुनिवर भलो कुरो भी कोय, अपरणौ और परायो होय ।
भूष मरत लषि के अंन-दान, देहु गृहस्थ विलंवन ठांनि ॥२६॥
२६१ : १ उनक। २ तिह। ३ कारण । २६२ : १ वसतनि । २ द्यावंत। ३ इंह। ४ बिधि । ५ कर। ६ कौं। ७ जे । २६३ : १ तावडे । २ कारण । २६४ : १ ग्रहस्छ । २ पसु। ३ विन। ४ दोस। ५ प्राय । ६ और । २६५ : १चोपई। २ भलौ। ३ वरौ। ४ परायौ।
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