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बुद्धि-विलास विनि लोभ संज्वलन चौकरीस, नव नो कषाय अप्रजापतीस । संज्वलन लोभ दसवै वषांनि, षटदस भाषी द्वादसम थांनि ॥१५०५॥ ग्यांना-वरनी की जांनि पांच, फुनि अंतराय को पांच सांच। द्रसना वरनी की षट कहेय, चक्षुदरसन२ निद्रा द्वै तजेय ॥१५०६॥ इन गये प्रगट ह्व सुद्ध ग्यांन, केवल दरसन सुषवल महांन ।
ताकी महिमां को पार नाहि, वुधन-वलहु तँ भाषी न जाहि ॥१५०७॥ दोहा : जरी जेवरी-सम रही, प्रक्रति पिच्यासी जान ।
ऐ जिंह समै पिप जवै, प्रभु पहुचें निरवान ॥१५०८॥ असैं यह वरनन कियौ, ग्रंथन के अनुसार । क्रियाभाव कर्मनु प्रक्रति, भविजन कौं हितकार ॥१५०६॥
अथ पद्मनंदि पचीसका तेन उक्तं दांनाधिकार-वर्नन दोहा : प्राणनि तँ प्यारो दरवि, ब वहु किये उपाय ।
ताकी गति है दांन सुभ, और कुगति के दाय ॥१५१०॥ ह्व सुपात्र वहुरचौं दुषी, भूषे रोगी दीन । जैसौ ह जिह जोग्य लषि, दीजे दांन प्रवीन ॥१५११॥ दांन दया तप व्रत नियम, संजम प्रभु गुर-भक्ति। करिवो जोग्य गृहस्थ कौं, जैसी ह निज सक्ति ॥१५१२॥
कवि-लघुता-वर्नन कुंडलिया : वरन्यौ बुद्धि-विलास यह, गृथादिक-अनुसार ।
है जिन-धर्म अनूप की, चरचा यामैं सार ॥ चरचा यामैं सार, पढे अरु सुनें जासकौं। ग्यांन होत अति गहैं नही, मत प्रांन तासकौं । पढ़ि सुनि साधै धर्म, तिन्हैं भवसायर तरन्यौं।
'वषतराम कुल साह, वुधि माफिक यह वरन्यौं ॥१५१३॥ दोहा : ग्रंथ नवल रचनां करी, भविजन कौं सुषदाय ।
हसहु न मोकौं कवि नवल, नवल विंग' उपजाय ॥१५१४॥
१५०६ : १ दृसना। २० चक्ष्युदर्सन । १५१३ : १ 'वषतराम सो मति प्रमान, कछ यक यह वरन्यौं । १५१४ : १० विगि।
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