SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि-विलास [ १७१ नवष्यायक अऊदयक तीन, असिधि मनुषि-गति वहुरि सुलीन । लेस्या सुकल तहां जो कही, भाव पारणांमिक व वही ॥१४९५॥ है अजोग केवलि चौंदहौं, तेरह भाव तास मधि कहौं । विन लेस्या तेरहां समान, सव चौदह गुरणथानक मांन ॥१४६६॥ छप्पै : प्रथम मांझि चौतीस दूसरै जानि वतीसौं । तीजे मैं बत्तीस चतुर्थम कहैं छतीसौं ॥ पंचषष्ट सप्तमैं भाव इकतीस होत हैं। अष्टम मैं गुणतीस नवम सोही उदोत हैं। तेईस इकोस सु वीस फुनि, चौदह तेरह जांनिए। इम गुरण-सथांन सव चतुरदस, मद्धि भाव पहचांनिऐ ॥१४६५॥ दोहा : इन भावन मैं जीव यह, गुण थांनकन मझारि । प्रवृत' सुभाषी यहै, सो भवि लेहु विचारि ॥१४९८॥ अथ कर्म प्रक्रति ऐक सौ अठतालीस मैं त्रेसठि बिपै तव केवल-ग्यांन उपजै ता परि कथन चौपई : अष्टक्रमनु की प्रति सुनीस, सर्व ऐक सौ अठतालीस । तिनमैं वेसठि पिपिहै जवै, केवल-ग्यांन उदै ह तवें ॥१४६६॥ दोहा : प्रक्रति तीन अरु साठि को, नास भयो जिह रोति । छंद पद्धरी मैं कह्यौ, सो देषौ करि प्रीति ॥१५००॥ चौपई : चौथै गुनथांनक नरक आय, पंचम तिरजंच जु प्राय जाय। अव सुनहु सातवें कहहुं भेव, वसु-प्रक्रति गई तहां जांनि ऐव ॥१५०१॥ अनतांनवद चौकरिय जांनि, मिथ्यात तीन स्वर प्रायु मांनि । नव मैं षटतीसहि गई ऐम, भाषी आगम-परमारण तेम ॥१५०२॥ गति नरक वहुरि तिरजंच जोय, ऐ ही गत्यांनपूरविय दोय । ऐकिंद्री' जाति कियौ निषेद, फुनि थावरपनौं दियो उछेद ॥१५०३॥ विकलत्रय निद्रा प्रवल तीन, आतप उदोत सूक्षम' तु हीन । प्रत्याष्यान जु चौकरिय जाय, अपरत्याष्यान सु चव पलाय ॥१५०४॥ १४९८ : १ प्रवरत। १५०३ : १ एकेन्द्री। १५०४ : १A सूषिम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy