________________
१६८ ]
बुद्धि-विलास
व कितेक तो करत हैं, किती मिटि गई चाल | तातें सधै सु कीजिये, समै समभि के हाल ॥ १४५८ ॥
श्रथ जीव पांच भावमय प्रवृतै' ताके भेद तरेपन ते गुरण-सथानकन मैं केते केते पाइऐ ताकौ कथन
दोहा :
भाव तरेपन भेद करि, होत सु मानौं सांच | है सरूप या जीव को मूल भाव ऐ पांच ॥१४५६ ॥ उपसम व्यायक दोय ऐ, इक क्ष्यो सम मांनि ।
उद येक चव' पंचमौं, पाररणामि कहि जांनि ॥ १४६० ॥
चौपाई : तिनके भेद तरेपन होय, ताकी विधि सुनिएँ भवि लोय । उपसम के भेद पवित्र, इक समकित दूजौ चारित्र' ॥ १४६१ ॥ क्ष्यापक के नौ भेद प्रमांन, समकित चारित दरसन ग्यांन । लवधि पांच दांन लाभ है, भोगपभोग वीर्य यौं कहै ॥ १४६२ ॥ क्ष्योप सम के भेद अठारा, समकित चारित संजम धारा । लवधि पांच श्रागें जो भाषी, दस उपयोग जांनि अभिलाषी ॥ १४६३॥ तामैं दरसन जांनौं तींन, चक्ष्यु श्रचक्ष्यु प्रवधि परवीन । ग्यांन सात जांनों गुनमई, मति श्रुति अवधि सुमन परजई ॥ १४६४ ॥ कुमति कुश्रुति कुवधि कुग्यांन, भेद अठारह भये प्रमान । श्रव सुनि उद येक के भेद, है इकवीस लषौ विन' वेद ॥ १४६५॥ सिधि संयम मिथ्या दरसन, वेद तीन ताकी विधिए सुन ।
सत्री पुरस नपुंसक जांनहु, च्यारि वेद गति के ऐ मांनहु ॥ १४६६॥ देव मनिष ' तिर यक नार की, श्रव विधि सुनि कषाय च्यारि की । क्रोध मांन साया लोभ है, लेस्या षट ताकी विधि कहै ॥ १४६७ ॥ असुभ कृष्ण श्रर नील कपोत, सुभ है पीत पदम सुकलोत । भेद पारगामिक त्रय जांन, जीवतु भवितु प्रभवितु वषांन ॥ १४६८ ॥
१४५६ : १ प्रवरतें ।
१४६० : १ चउ । १४६१ : १ चरित्र | १४६२ : १ नव । १४६५ : १ विनि । १४६७ : १ मनुषि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org