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________________ १६० ] बुद्धि-विलास मोष्य' साख फुनि सिल्प जु साख, तिनमैं निपुन होत गुण पात्र । गुर आग्या तें धर्म सुसोल, तामैं सावधान ह डील ॥१३७६॥ गुर पदस्त धारण चित दिया, गुर स्थांनभ्युपगम सो क्रिया। श्रावग वहरि श्राविका ताहि, मुनि अजिका सतमारग मांहि ॥१३८०॥ प्रवृतावै' जो इनकौं जांनि, गण पोषरण किरिया सो मांनि । सिष्य वुलाय प्रापरणौं भार, ताकौं अर्पण करै सु सार ॥१३८१॥ गुर-वृति' विष सवनि प्रवनावै, सु गुरु संथानक प्राप्ति क्रियावै । भार समस्त जु कोई समये, सिष्य मैं थापि आप कहुं गमये ॥१३८२॥ इका विहारी है गुन सनां, निर ममत्व भावै भावनां । नाम क्रिया को सुनिऐ पांवन, निरममत्व प्रातम कौं भांवन ॥१३८३॥ राग द्वेष तजि मन-वच काय, भिन्न प्रात्म चितवै मुनिराय । सर्व लोक मस्तग परि संत, सुषमय तिष्ट तपह भावंत ॥१३८४॥ नांम क्रिया को करौं वषांरण, संप्रापति सु जोग निरवांरण । मन की वृत्ति सरीर अहार, तिन्हौं छांडि लावै गुरगधार ॥१३८५॥ पंच परम-ईष्टी मैं जांण, सो किरिया साधन निरवांरण । प्राण छोड़ि तप-वल परसाद, स्वर्ग लहै से ज्या उत्पाद ॥१३८६॥ अणिमादिक रिघि लहि वहुतिया, सो इंद्रोपपाद है क्रिया । उपजत ही प्रापति ह औधि, कलसभिषेष करै सुर सोंधि ॥१३८७॥ प्राग्या धारै सवही देव, इंद्रभिषेष क्रिया है ऐव। इँद्र जोग्य दांन वहु करै, सो विधि दांन क्रिया ऊचर ॥१३८८॥ स्वर्गापणीत' सुष भोगंत, मनसा पूर्वक वहु गुणवंत । क्रिया सुषोदय ताहि कहीस, ए सव किरिया भई छतीस ॥१३८६॥ अरिल : किंचिन मात्र प्रायु' वाकी थिति जांनिहै, - तवै देव देवांगनांनि ते यम कहैं। प्रीति अधिक करि मोपें प्राग्या मानते, उपजै इंद्र रहौ तातै हित ठांनते ॥१३९०॥ १३७६ : १ मोषि। १३८१ : १ प्रवताव। १३८२ : १A ब्रिति । १३८६ : १ A सुर्गाप्रणीन । १३६० : १ A प्राय । Jain Education International For Private & Personal Use Only sonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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