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बुद्धि-विलास
[ १६१ मेरै सनमुषि भई विभव मधि लोक की,
इम सिष्या दै करै दिलासा थोक की। क्षिमा' भाव करि के विभूति सव त्यागही२,
___ सोही सतगुर इंद्र त्याग किरिया कही ॥१३६१॥ सोरठा : चवरण स्वर्ग से जांनि, नर भवि सिव वांछा करें।
नमि सिध त्यागै प्रांन, इंद्रावतार सो क्रिया ॥१३६२॥ छद पद्धरी : नृप मंदिर वरषत रतन प्राय,
षटमांस आदि तें धनदराय । पटरांणी की सेवा करेवि, सोधना गर्भ दै प्रादि देवि ॥१३६३॥ पंचाश्चर्य व सुपन प्रात, षोडस सुभ सो माता लषात । पूजा सु गर्भ की करत देव, सो हिरिरिणगर्भ किरिया कहेव ॥१३६४॥ जनमैं तव हरषत लोक तीन, इंद्राणी स्वरपति स्वर प्रवोन । वा वालक कौं ले जात मेर, वैठात सिला अति स्वछ्छ हेर ॥१३९५॥ षीरोदधि त भरि कलत ल्यात, इक सहस आठ ते तिनु न्हवात । स्वर स्वरपति उत्सव' करि विसेष, महेंद्र प्राभि किरियाभिषेष ॥१३९६॥ विद्या समस्त मैं निपुन होत, त्रय ग्यांन स्वयंभू ह्र उदोत । इंद्रादि पूजि विनती करत, गुरू पूजन किरिया सो महंत ॥१३९७॥
१३९१ : १ क्षमा। २ त्यागिही। ३ सोई। १३६४ : १ हरिरिणजन्म । १३९६ : १ उतसव।
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