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बुद्धि-विलास
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पित्रादिक की प्राग्या' लेय, सुत उपजन कौं व्याह करेय । तीर्थस्थान पूजि घरि जाय, क्रिया विवाह कही मुनिराय ॥ १३६६॥ धंन्न धान्य श्रादि वहु लेय, धर्म प्रतग्या हिऐ धरेय । पितु आग्या तैं दर्व्य उपात, वर्ण लाभ किरिया यह गात ॥ १३६७॥ पूजा महा पंच परकार, च्यारि प्रकार दक्षि है सार । तिनकों करं भाव सुध धरै, कुलचर्या सु क्रिया अनुसरे ॥ १३६८॥ प्रतिचार' करि रहित सु धर्म, दृढ श्रुत वृत किरिया प्रति पर्म । तिनकौं अधिकपणे तैं भजै, सो गृहीसिता किरिया सजै ॥११६६॥ सावधान निज सुत कौं करें, धन अरु धर्म मांझि ततपरै । गृहीपण सौंपे सव ताहि, श्राप त्यागि अभिलाष रहाहि ॥ १३७० ॥ विषयन तें जु अपूठो होय, स्वाध्याय मैं निपुन नांना उपवासादिक करें, सो प्रसांत किरिया गुण आप क्रतार्थ परणौ मानंत, वांटि पुत्रकौं धन सौपंत । ता मधि वट कहि कैं ए तीन, इक वट धर्म मांझिकरि लोन ॥१३७२ ॥ इक वट घर मैं षरच करेहु, इक वट भ्रात बहरण को देहु । कुल प्रवृति श्रपणे की वहौ, सावधान ताकै मधि रहो ॥ १३७३॥ इम समस्त पंचन के वीचि, सिष्या तिनकौं देत समीचि । आप त्याग जव गृह कौ करें, सो गृह त्याग क्रिया गुरु धरै ॥ १३७४॥ ऐक वत्र धरि क्षुलक' रूप धरें सु दिया क्रिक्ष्या अनूप | वस्त्र त्यागहू करं समस्त, जो तजि सके न कायर वख ॥ १३७५ ॥ जात रूप सौ जो धरै, सो जिन रूप क्रिया ऊचरै ।
सोय |
धरै ॥१३७१॥
दीक्ष्या पर्छ वास जो धरें, मौंनि धारि पाररणों करै ॥१३७६॥
इष्ट साख पूरण हाॅ नही, तौलौं मौनि धरै गुण गृही । मौन्याध्याय वृतत्व सुक्रिया ॥ १३७७॥ वहुरचौ करें विशुद्धाचर्ण' ।
गुर समीपि जो पढि हौ भिया, पढे समस्त सासतर वर्ण,
भावे सोलह भांवन संत, तीर्थंकर किरिया सु भनंत ॥ १३७८ ॥
१३६६ : १ अग्या ।
१३६६ : १A प्रतीचारा ।
१३७५ : १क्ष्युलक । १३७८ : १ त्रिसुधाचर्ण ।
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