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________________ १४६ ] बुद्धि-विलास जिनके वंदत चरन, स्वर्ग सिव सुष-लहि हरिषत । सोही वषता कहै, कर्म वसु मेरे अरिहंत ॥१२३४॥ दोहा : इक उतसरपरिण काल मैं, तीर्थंकर चौंवीस । तिनकै वारै यह कथन, कीन्हौं है गण ईस ॥१२३५॥ पंच' परमइष्टीन के, गुन वरने जग सार। वषतरांम विधिवत तिन्हैं, नमि नमि वारंवार ॥१२३६॥ रे भवि इनके गुननु कौ, पार न पावत कोय । 4 कछु यक गणधर कहे, ता माफिक ऐ जोय ॥१२३७॥ अथ श्रुत भेद' ग्यान द्वादसांग बांनी वर्नन दोहा : भेद दोय श्रुत-ग्यांन के, इक तो अंग प्रविष्ट । अंग वाह्य दूजो कहैं, श्रीगुर गुरगधर सिष्ट ॥१२३८॥ छद : तामै अंग प्रविष्ट कहावत द्वादसांग जो वाणी। ताके पद हैं अड़ब ऐक फुनि वारा कोडि वषांणी ॥ तापै लाष तियासी बहुरयौं सहस अंठावन कहिये । ऊपरि पांच और यह संख्या ग्रंथन कै मति लहिऐ ॥१२३६॥ कहि पायो ग्यारह अंग ताके पद असे गुर गावै। च्यारि कोडि' पंद्रह लषि ऊपरि दोय सहश्र बतावै ॥ ऐक अंग के भेद अधिक हैं ताके पद सुनि२ सांचै । इक सत पाठ कोडि अठसठि लषि छपन सहस परि पांचै ॥१२४०॥ दोहा : ऐक अंग के भेद सुनि, पूरव और प्रगिप्ति । सूत्र जोग प्रथमान फुनि, कही चूलिका सत्ति ॥१२४१॥ तामैं चौदह पूर्व जो, कहि आयो सो वाच । तसु पद कोटि पिच्यारणवै, लषि पचास परि पांच ॥१२४२॥ वहुरचौं पांच प्रगिप्ति है, तिनके पद इक कोटि । लाष पिच्यासी' ऊपरै, पांच सहस लै जोटि ॥१२४३॥ १२३६ : १ पंचम । २ परमइष्टीनि । १२३८ : १ भेद। २श्रिष्ट । १२४० : १ A कोटि। २ है। १२४३ : १ इक्यासी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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