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________________ दोहा : सोरठा : बुद्धि-विलास [ १४५ फुनि चौदाता' वरननर यहै, गुर नांम तांको यह कहै । भनि लोक विदु जु सार है, मधि कथन प्रति विस्तार है ॥१२२५॥ निरवारण के सुष को सर्वे पद कोटि वारह परि जवै । पञ्चास लाष जु धारिये, दोऊ मिलाय विचारिये ॥१२२६॥ उपाध्याय के गुननि' कौ, वरनन यह अभिराम । अंगरु पूर्व पचीस सव, भिन-भिन तस नांम ॥ १२२७॥ Jain Education International अथ साधु गुन वर्नन अठाईस गुरग साध के, सोही मूल कहात । तिनके नाम प्रत्येक प्रव, सुरिग लीजे हे भ्रातः ॥ १२२८ ॥ प्रथम महाव्रत पांच,जांनि श्रहिंसा फुनि प्रवृति' । है सतेय-वृत सांच, ब्रह्मचर्य प्राकिंचनौं ॥ १२२६ ॥ सुमति पंच परकार, ईर्ष्या भाषा एषरणां । प्रतिष्ठापनां सार, पंचम प्रादान्य पेपरणां ॥१२३० ॥ इंद्री पंच वरोधि, लोच करें केसनि तणी । षट प्रावसिक सु सोधि, कहि प्रायो जैसे करें ॥१२३१॥ वस्त्र रहित तन पेषि, बहुरि सनांन करें नही । भुव परि सोवै देषि, दंत धवन नांहि करे ॥१२३२॥ भोजन षड़े करंत, एक वार निश्च यहै । तप करि कर्म हरणंत, श्रठाईस गुण साधिये ॥१२३३॥ कुंडलिया : अरहत सिध प्राचार्य गुर, उपाध्याय अरु साध । तिनकी सेवा करत भवि, पदई लहत प्रवाध ॥ पदई लहत श्रवाध, भये तिनके गुरण सव ही । इक-सत त्रय-चालीस, विसरिए तिनहि न कव ही ॥ १२२५ : १ चौदमौं । १२२७ : १ गुननु । १२२८ : १ साधके । १२२६ : १ अनृत्य | २ पूरब २ प्रतेक । ३ भ्राति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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