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बुद्धि-विलास सूर्य-द्वये वीज-नास षंढ ससि-युगे भवेत् । ऋतौ समैः दिनः पुत्रो विषमैः पुत्रिका मता ॥११४८॥ कलवलं चैक रात्रेण पंचरात्रेण वुवुदः। पक्षकेरणांडकं चैव मासेनां च शिरोंकुर ॥११४६॥ उरो मासद्वयं यावत् त्रिभिश्चैव तथोदरं । साखा चतुर्थमासेन अंगुली नष पंचमे ॥११५०॥ रोम द्रष्टिश्च षष्टे च सर्वावयव सप्तमे। नवमे दशमे वापि वायुना सो वहिर्भवेत् ॥११५१॥
ताकी भाषा दोहा : निकसै जीव सरीर तै, जिह जिह द्वारै जोय।
जे जे गति पावै सु यह, वरनन सुनि भवि-लोय ॥११५२॥ छप्प : ऊर्धद्वार नीकसै मौषिपद पावत जे हैं।
नेत्र द्वारि ह निकसि देवगति पावत ते हैं। मुष ह निकषत मनुषि नांक ह वित्तर होई।
कांननि त ह पसू असुर लिगि पसु राक्षस सोई ॥ अपद्वार होय निकसै जु को, सो पावत है नरक-गति । इह भांति ग्यांन-सूर्योदये, नाटिक मैं वरनी विगति ॥११५३॥
अथ जीव का आगम को वर्नन सोरठा : आगम मुष की राह, होत जीव को सकल के।
और राह नहि थाह, असैं मुनि वर्नन कियव ॥११५४॥
अथ जीव उतपति वर्नन अरिल[छंद]: पिता तणों ह सुक्र रुधिर ह मात कौं,
मिले जवै रतिसमै समै उपजात को। जीव पाय तिह ठौहर' दुहूं कौं बैंचही,
तव ही उतपति होत वात असे कही ॥११५५॥ शुक्र अधिक ह तौ उपजत है वाल जू,
रुधिर अधिक से कन्या होत विसाल जू ।
११५५ : १ ठोरहु ।
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