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बुद्धि-विलास
[ १३५ गीतन को सुनन सुगांवन', निति नृत्ति सुनांवत करांवन । फुनि व्रह्मचर्य कौं पालय,२ मरजाद करै सु न टालय ॥११३७॥ नित्ति करन सनांन जितीवर, पहरण प्राभूषण वसतर। वाहन गज हय रथ राज, सेज्या सोवन को साजै ॥११३८॥ प्रासन जु विछांवन गादी, पाटा चौकी दै अादी । फुनि सचित मद्धि जो त्यागै, चित्त गमन करन अनुरागै ॥११३६॥ ऐ विधि सत्रह जो भाष, करि के मरजाद सु राषै।
नित्ति-नेम करै ता मांही, मन-वच-तन नांहि चिगांहीं ॥११४०॥ दोहा : गुरु गणधर ऐ विधि कही, श्रावग कौं उतकिष्ट ।
सत्रह सव पालै जु निति, जे जगमाही श्रिष्ट ॥११४१॥ अथ जीह द्वारै होय जीव नीकसै, अर जो गति पावै, वा जीह द्वारै होय प्राव, वा कुरण तरह उपज, वा वधै सो वर्नन ग्यांन
सूर्योदय नाटिकेन उक्त लोक ऊर्धद्वारेण मोक्षत्वं चक्षुर्यों देवयोनिका । मुख-मर्त्य-जन्म' स्यात् नासाभ्यां व्यंतरो भवेत् ॥११४२॥ करणाभ्यां असुरत्वं च ल्यंगद्वारे निषादका' । गुह्यन नारकाश्चैव दसैरे द्वारारिण निर्गम ॥११४३॥ जीवस्यागमनं चैव मुखमेव प्रकीतिता ॥११४४॥ पितुशुक्राच्च मातुश्च शोरिणतादर्भ-संभव । सुकर्म-परिणामेन जीवस्यो पत्तिरिष्यते ॥११४५॥ शुक्रस्याधिक्यतो बाल कन्या शोणित-गौरवात् । श्रुकशोरिणतयो साम्य' षंडत्वं तस्य जायते ॥११४६॥ नृदेहे यदि सूर्यः स्यानार्या सीतकरो यदि । विदो संजायते पुत्रो वैपरीत्ये तु पुत्रिका ॥११४७॥
३ टालें।
११३७ : १ A सुगांवन। २ पालें। ११४२ : १ मृत्यचजन्म । ११४३ : १ निषादिका। २ दश । ११४५ : १ जीवेस्योत्पत्तिरिष्यते । ११४६ : १ स्याम।
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