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बुद्धि-विलास
[ १३१ अथ ग्रहादिक-पूजन-कथन-छंद' छप्पै पदमपर्भ कौं सूर्य चंद्रप्रभ कौं ससि पूजय । वासपूज्य कौं भोम सांति नमि वुद्ध करै जय ॥ मल्लि-गुरू फुनि पुष्पदंत कौं शुक्र जु मानहि । मुनि सूवृत सनि प्रभु सु पार्श्व कौं राह वषांनहि ॥ नमैं' केत पार्श्व-प्रभु कौं सु इम, अधिष्टदाता जांनिऐ।
जिनविव अग्नि-ग्रह थापि करि, पूजनि मत परि ठानिएँ ॥१११६॥ चौपई। मंत्र जंत्र ओषधि' ग्रहसाधन, तंत्र चतुरई देव-अराधन ।
कारिज परि इनहूं कौं मांनहु, प्रभू-भाव इन 4 मति ठांसहु ॥१११७॥ सोरठा : सांमायक न्हावंत, मइथुन मल-मोचन ववन' । भोजन जिन पूजंत, मौनि सप्त ठौहर कही ॥१११८॥
प्रथ्वी-नांम अरिल: नरक-भवन-वासी फुनि वितर जोतिगी,
कहैं कलयवासिनु की प्रथ्वी कौतिगी। नवग्रीवेक वहुरि सरवारथसिद्धि है,
जांनि मोषि लौं प्रथ्वी पाठ प्रसिद्धि है ॥१११६॥ अथ ऐक सौ गुणहतरि मुक्तिगांमी जीवन के नाम दोहा : तीर्थकर माता-पिता, सवै वहैतरि होय। सो तौ कहि पायो वहुरि, अव सुनिए भवि-लोय ॥११२०॥
कुलकर नाम छप्प : प्रतिश्रुति सनमति बहुरि भये मंकर नामी।
फुनि क्षेमंधर सीमंकर सीमंधर स्वामी ॥ भये विमलवाहन सु कहत चक्षुष मानवे । यस्सस्वी अभिचंद्र बहुरि चंद्राभ जांनिवै ॥ मरुदेव वहरि प्रसेनजीत', नाभिराय लौं गिनहु सव ।
चवदह जु भये तिनकौं नमत, वषतरांम तजिकै गरव ॥११२१॥ १११६ : १A missing। २ नमि। ३ अन-गृह । १११७ : १A वोषदि। १११८ : १ वचन । ११२१ : १० प्रासेनजित ।
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