________________
१३० ]
बुद्धि-विलास अति मरम-छेद के वचन कहि, गांस राषि षोटी करें। नर आयो नरक-निगोदि से, कुगति कुमारग कौं धरै ॥११११॥
नरक निगोदिनु जांहि त्यागि नर-भव को जे नर । तिनको दुष्ट सुभाव अभष भाषत है बर-बर ॥ मेरो वैरी ताहि वांधि दिढ वहुत मारि हौं।
वल प्रचंड ते षंड, पंड-करि पुर प्रजारि हौं । जेतीक भूमि याकी सवै, वसि करि लूटहुँ घर नगर । धारै जु ध्यान अतिरुद्र वह, नरक निगोदिनु लहत घर ॥१११२॥
नृपपद पांऊ तौव होय मनवंछित मेरे। चंद्रमुषी सजि सेज भोगिहौं साँझ सवेरे ॥ नग-भूषन तन वसन पहरि वहु सुगंध लायकै ।
चढ़ि रथ गज सुष-पाल अस्व सांहन वनायकै ॥ विचरौं सुछंद ह अवनि परि, प्रारति ध्यान धरचौ करै । नर-भव कौं त्यागि तिके मनिष, तिरजंचनि की गति धरै ॥१११३॥
घट मैं रहै विचार-भेद आगम को निज पर । महावृतनि धरि दमैं इंद्रियनु रमैं वोध-वर ॥ दयाभाव धरि गहि समकित चारित्र हि पालय।
बंध-मोष्य-कारण विचार सव नित्ति सम्हालय ॥ तजि कुमति विलास अकर्थ सव, धर्म-ध्यांन मैं रत रहै। पैहै सु देवगति नर यहै, वषतरांम इम गुर कहै ॥१११४॥
वरन गंध रस' सवद रहै इन तै समभावन । इंद्री२ तजै विकार नहि गाढगहि धर्म जु पांवन ॥ संकलप-विकलय तजय सुपनहूं मैं विकार नहि।
राग-दोष कौं त्यागि लगै प्रातम-अनुभव महि ॥ ए कहे सवै लछिन जिते जे नर मन-वच तन गहय । निश्चै प्रकार यौँ जांनि वह नर-भव नै नर-भव लहय ॥१११५॥
इती॥
१९१५ : १मांधरस।
२ इंद्रिय। ३० तजय। ४ तजहि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org