SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १२६ बुद्धि-विलास दोहा : या विधि वा वृषभ जिन, वरनै वेद अनूप। वषतरांम वंदै चरन, बहु विधि अद्भुत रूप ॥११०७॥ अथ च्यारयौं गति सौं प्राय' नर-भव पावै तथा नर-भव तै च्यारचौ गतिनु मैं जाय तिनके लछिरण -वर्नन छप्पै: देवनि की परजाय त्यागि ह मनिष जास कैं। साता सुभ ह उदै ह्व न उदवेग तास कैं। घट मैं सु परविवेक सत्ति-परतीति होत अति । दांन सुपात्र हि देत चतुर ह मधुर-वचन गति ॥ संम्यकसुभाव करुणां धरै, देवपूज्य सतगुर नमत । गुंन होत इते नरमैं सु वह, स्वर-भवतै आयो रमत ॥११०८॥ अजस मूल नहि लोभ विनय गुनजुत वच भाष। दान देत फुनि दया सर्व जीवनि परि राषै ॥ रुचि सुभ रचनां माझि रहतु सुभ धर्महि जानत । सबही कौं लषि सुषी अधिक आनंद उर प्रांनत ॥ मुष रहै सदा प्रति ही प्रसन, कवहु न व्यापै सोकभर । लछिन इतेक यम जाँनि यह, नर-भव तजि फुनि भयव नर ॥११०६॥ भोजन करै अघाय रोग से डरै न पलमति । ज्यौं-ज्यों धन वहु वधै-वधै त्रिसन' त्यौं-त्यौं अति ॥ मोह-नीद मैं मगन पतिता तनक न पावै । झूठ बहुरि अग्यांन उदिम सौं वुद्धि गमावै ॥ प्रालसी नाम प्रभु लैन मैं, चरचा पाप कियो करय । पायो जु यहै तिरजंच तें जो नर ए लछिन धरय ॥१११०॥ करि कषाय ते कुमति हितू फुनि बंध विरोधहि । रोग-व्याधि करि गृस्त' रहै निसि२-दिनि तजि वोधहि ॥ मूरिष महा मिथ्या तिनु संगि सुजनम जात नसि । क्रोध-प्रगनि मैं प्रजरि उठ जिम वांस जरत घसि ॥ ११०८ : १ Amissing। २ लक्षिन । ११०६ : १Aधर्मही। १११०:१Aसना। ११११ : १प्रसत। २निस । ३ प्रजरि। ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainel www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy