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बुद्धि-विलास दोहा : या विधि वा वृषभ जिन, वरनै वेद अनूप।
वषतरांम वंदै चरन, बहु विधि अद्भुत रूप ॥११०७॥ अथ च्यारयौं गति सौं प्राय' नर-भव पावै तथा नर-भव तै
च्यारचौ गतिनु मैं जाय तिनके लछिरण -वर्नन छप्पै: देवनि की परजाय त्यागि ह मनिष जास कैं।
साता सुभ ह उदै ह्व न उदवेग तास कैं। घट मैं सु परविवेक सत्ति-परतीति होत अति ।
दांन सुपात्र हि देत चतुर ह मधुर-वचन गति ॥ संम्यकसुभाव करुणां धरै, देवपूज्य सतगुर नमत । गुंन होत इते नरमैं सु वह, स्वर-भवतै आयो रमत ॥११०८॥ अजस मूल नहि लोभ विनय गुनजुत वच भाष। दान देत फुनि दया सर्व जीवनि परि राषै ॥ रुचि सुभ रचनां माझि रहतु सुभ धर्महि जानत ।
सबही कौं लषि सुषी अधिक आनंद उर प्रांनत ॥ मुष रहै सदा प्रति ही प्रसन, कवहु न व्यापै सोकभर । लछिन इतेक यम जाँनि यह, नर-भव तजि फुनि भयव नर ॥११०६॥ भोजन करै अघाय रोग से डरै न पलमति । ज्यौं-ज्यों धन वहु वधै-वधै त्रिसन' त्यौं-त्यौं अति ॥ मोह-नीद मैं मगन पतिता तनक न पावै ।
झूठ बहुरि अग्यांन उदिम सौं वुद्धि गमावै ॥ प्रालसी नाम प्रभु लैन मैं, चरचा पाप कियो करय । पायो जु यहै तिरजंच तें जो नर ए लछिन धरय ॥१११०॥ करि कषाय ते कुमति हितू फुनि बंध विरोधहि । रोग-व्याधि करि गृस्त' रहै निसि२-दिनि तजि वोधहि ॥ मूरिष महा मिथ्या तिनु संगि सुजनम जात नसि । क्रोध-प्रगनि मैं प्रजरि उठ जिम वांस जरत घसि ॥
११०८ : १ Amissing। २ लक्षिन । ११०६ : १Aधर्मही। १११०:१Aसना। ११११ : १प्रसत। २निस । ३ प्रजरि।
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