________________
१२८ ]
बुद्धि-विलास दुतिय' वेद भाष्यौ अरिहंत, प्रथम प्रलोका कास अनंत । तामैं लोक प्रदेस अपार, ताकौ त्र कहै यह विसतार ॥१०६५॥ ऊर्ध अधै फुनि है मधि लोक, ताकै मध्य' वनें वहु थोक । उदधि दीप मंडल आकार, है ध्रव सदा अंसषि मझार ॥१०६६॥ दीप अढाई तिन के मद्धि, पंच मेरु' तिन मांहि प्रसिद्धि । स्वर विद्याधर रमैं अनेक, सोलह स्वर्ग सु नव ग्रीवेक ॥१०९७॥ नव नव तरा पिचोतर पांच, तापँ सिद्धसिला भनि सांच । ऊपरि सिद्ध-क्षेत्र है जहां, तिष्टत' सिद्ध अनंते तहां ॥१०९८॥ अधो लोक कहियत पाताल, नरक निगोदि तहां अघ जाल। वात वलय कै है प्राधार, दूजे मैं वर्नन यह सार ॥१०६६॥ तीजे मद्धि कथा यह धरी, गुन-थानक चरचा गुन-भरी। संम्यक दर्सनग्यान चरित्र, ग्यारह गुंन श्रावक सु पवित्र ॥११००॥ परमादी मुनि को वहु क्रिया, बहुरि प्रमाद हरन विधि भिया । चारित करन त्रिधा विधि सही, श्रेणी द्वै दुष सुषमय कही ॥११०१॥ उपसम षिपक वहुरि चारित्र, कह्यौ जथावत परम पवित्र ।
क्रत कारित अनमोदन जेह, द्वि विधि त्रिविधि पंच विधि तेह ॥११०२॥ दोहा : संध्या वरन असंषि विधि, भेद अनंते तास ।
सदाचार यह कथन किय, तीजे मांझि प्रकास ॥११०३॥ चौपई : चौथे मैं वरनन यह जानौं, जीव सु पुदगल' धर्म वषांनौं।
अधरम काल अकास जु कहिये, ऐ ही छहौं दयं जग लहिये ॥११०४॥ ऐक ऐक मैं गुन पर जाय, है सक्ति हू अनंत सुभाय । कोय न जनमैं मरै न कोय, निश्चै नय विवहार जु सोय ॥११०५॥ कर्म भेद इन प्रादि अनेक, जिनवर कथन कियो प्रत्येक । च्यारिनु मधि वरने ए भेद, तासौं जोग सु ही है वेद ॥११०६॥
१०६५ : १A दुतिव । १०६६ : १० मद्धि। १०६७ : १० मेर। १०६८ : १Aतिसटत । ११०३ : १ असंष । ११०४ : १० पदगल ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org