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बुद्धि-विलास
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मत नासतीक पगि रहैं पाप, ते अनंत संसारी हौहि प्राप। रतन-त्रय धर मुनिराज पर्म, प्रातम ध्यांनी सु जिहाज धर्म ॥१०४८॥ इछ्छा विनि तप घोर जु करत, करि नास कर्म भव जल तिरंत । तिन साधन के निरमल सुपाय, पूजत उत्तिम नर देव प्राय ॥१०४६॥ साधर्मी वत्छल गुरण सुप्रीत, ते वांधत उत्तिम गोत्र मीत । जिन मती जिनागम जान जेह, तिनु नमैं न करि अभिमान तेह ॥१०५०॥ मानत जु नीच गुरदेव धर्म, पावत जे गोत्र जु नीच पर्म । वैराग्य' जिके हिय मैं धरत, त्रिसनां तजि जिन-मत तपत पंत ॥१०५१॥ अति निर्मल चारित धन भंडार, धरि ग्यान ध्यान सुचि विन विकार । नहि चाहत पूजा लाभ ष्याति, ते संपति स्वर-अहिमिंद्रपांति ॥१०५२॥ वैरी वसि प्रा पंच कर्न, चारित पालैं अति अमल वर्न । दुद्धर तप करि सोधें जु काय, ते स्वर' ह चक्री हौंहि राय ॥१०५३॥ जे' संम्यक२ द्रष्टि मुनि गृही जु, सोलह कारण भावें सही जु।
१०५१ : १ ते। २० वैराग । १०५३ : १ सुर। १०५४ : १जि। २A संमियक ।
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