SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि-विलास [ १२३ मत नासतीक पगि रहैं पाप, ते अनंत संसारी हौहि प्राप। रतन-त्रय धर मुनिराज पर्म, प्रातम ध्यांनी सु जिहाज धर्म ॥१०४८॥ इछ्छा विनि तप घोर जु करत, करि नास कर्म भव जल तिरंत । तिन साधन के निरमल सुपाय, पूजत उत्तिम नर देव प्राय ॥१०४६॥ साधर्मी वत्छल गुरण सुप्रीत, ते वांधत उत्तिम गोत्र मीत । जिन मती जिनागम जान जेह, तिनु नमैं न करि अभिमान तेह ॥१०५०॥ मानत जु नीच गुरदेव धर्म, पावत जे गोत्र जु नीच पर्म । वैराग्य' जिके हिय मैं धरत, त्रिसनां तजि जिन-मत तपत पंत ॥१०५१॥ अति निर्मल चारित धन भंडार, धरि ग्यान ध्यान सुचि विन विकार । नहि चाहत पूजा लाभ ष्याति, ते संपति स्वर-अहिमिंद्रपांति ॥१०५२॥ वैरी वसि प्रा पंच कर्न, चारित पालैं अति अमल वर्न । दुद्धर तप करि सोधें जु काय, ते स्वर' ह चक्री हौंहि राय ॥१०५३॥ जे' संम्यक२ द्रष्टि मुनि गृही जु, सोलह कारण भावें सही जु। १०५१ : १ ते। २० वैराग । १०५३ : १ सुर। १०५४ : १जि। २A संमियक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy