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बुद्धि-विलास जिन गृथ पढे समयो विचारि, पर कौं सुभ पंथ पढात सार ॥१०४१॥ हित सौं देसति धर्मोपदेस, परभव पंडित पद लहै वेस। हिरदै मधि धरि जे ग्यांन गर्व, दूषत हैं जिन सिद्धांत सर्व ॥१०४२॥ इछछाचारी जु पढे असुद्ध, तजि ग्यान विनय जड़-बुद्धि' मुद्ध। पढने के जोग्य पढात नाहि, असे मरि मूरिष ऊपजांहि ॥१०४३॥ प्रारंभी है रत अनाचार, पर को पीड़त न करैं अंवार । नहि गहैं धर्म रत पाप कर्म, परभव ते रोगी होय' पर्म ॥१०४४॥ हरईं प्रति वर' पर दुषहि देषि, पर-वनिता पर-धन हरै लेषि । नर-पसु को करत विछोह सोय, पुत्रादि विवोगी वहै होय ॥१०४५॥ रत नीच कर्म करनां विहीन, कर पद छेदत छिनमैं प्रवीन । फुनि पर कौं उपजावंत पीर, ते विकल लहत षल नर सरीर ॥१०४६॥ जे मिथ्या मत मदिरा पिवंत, हिय पाप सूत्र सरधा धरंत । करि निमति धर्म के जीव वद्ध', धरि के कषाय कलुषंत क्रुद्ध ॥१०४७॥
१०४३ : १मुद्ध। २ बुद्ध। ३जोगि। १०४४ : १होत। १०४५ : १ उर। १०४७ : १ वध ।
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