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बुद्धि-विलास अति कामी कुटिल जु ह अतीव, 8 सरागी' सु मोहंत जीव । पर-वनिता रत संजुक्त सोग, परभव कामिनि ह या संजोग ॥१०३५॥ जे राग अंध प्रति जगत माहि, ह्व काम भोग सौं त्रपति नाहि । वेस्या' दासी रत व कुसोल, परभव हि नपुंसक लहहि डील ॥१०३६॥ मन वचन काय ह निरदई सु, वध' वंधन ठांनै अघमई सु। पर कौं पीड़ा वहु विधि करत, ते अलप आयु धरि के मरंत ॥१०३७॥ ह क्रपावंत कोमल प्रनाम, वहु सोचि विचारि सु करय काम । ततपर ह जीव दया मझार, पर कौं पोड़ा दे नहि लगार ॥१०३८॥ सवही जीवनि सौं हेत भाव, ते पुरष लहत हैं दीर्घ प्राव । जिन जग्य-परायण चित सुजांन, धर सील होंहि रत पात्र दान ॥१०३६॥ इंद्री जोहि धारहि सतोष, ते लहै भोग नर वरत पोष। पूजा रु दान ते विमुष जेह, मद लीन सु इंद्री-लुब्ध तेह ॥१०४०॥ दुरध्यांनी पर गुन दया-हीन, दुरचारी भोग न लहै हीन ।
१०३५ : १ सुरागी। १०३६ : १A वेसां। १०३७ : १missing। २A प्राय ।
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