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________________ १२० ] १०३३ १ सुभाव । Jain Education International बुद्धि-विलास भोजन फुनि मल मूत्रहि करंत, तजि मौंनि वोल वाचाल हुंत । वह झूठी कहि कहि सकत नाहि, ते गूंगे जन मैं जगत पर--तिय मुष देखें करि निरबैं सठ जौ नादिक रु वंध वंधन जोवै धरि सुराग, ते मरि प्रांधे होहैं प्रभाग ॥ १०२६ ॥ जे करत कुतीरथ कौं जु गौन, वहु लादत वोझ जु धरहि मौंन । फुनि करत विहार विनां प्रसंग, सिंह पातिग फल तें हौंहि पंग ॥१०३०॥ करि नीति विराज तें लछ्छि लेत, श्रधिकी न लेत वोछी न देत । वित्त अलपहु दानादिक करें सु, ते नर धन-धारी श्रवतरें सु ॥१०३१॥ धन पाय धरं श्रभिमान कोय, मांहि ॥१०२८ ॥ सनेह, देह । समरथ ह्वै दान न छल छिद्र करें धन श्रति वढत परिगृह देत लोय । कारण सु, नहि धर्पे सु ॥१०३२॥ धनवान होय ह्व कपन जेह, परभव हि दलिद्री होत तेह | ह्र मंद कषाई सरल भांव, श्रहि निसि वर ते पूजा स्वभाव ॥१०३३ ॥ सदा सु, निज वनिता संतोषी दोषत मंदरागी सर्वदा सव दुराचार जिन के सु । निषेद, परभव पावहि ते पुरिष वेद ॥१०३४॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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