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१०३३
१ सुभाव ।
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बुद्धि-विलास
भोजन फुनि मल मूत्रहि करंत, तजि मौंनि वोल वाचाल हुंत । वह झूठी कहि कहि सकत नाहि, ते गूंगे जन मैं जगत पर--तिय मुष देखें करि निरबैं सठ जौ नादिक रु वंध वंधन जोवै धरि सुराग,
ते मरि प्रांधे होहैं प्रभाग ॥ १०२६ ॥
जे करत कुतीरथ कौं जु गौन,
वहु लादत वोझ जु धरहि मौंन ।
फुनि करत विहार विनां प्रसंग, सिंह पातिग फल तें हौंहि पंग ॥१०३०॥ करि नीति विराज तें लछ्छि लेत, श्रधिकी न लेत वोछी न देत । वित्त अलपहु दानादिक करें सु, ते नर धन-धारी श्रवतरें सु ॥१०३१॥ धन पाय धरं श्रभिमान कोय,
मांहि ॥१०२८ ॥
सनेह,
देह ।
समरथ ह्वै दान न छल छिद्र करें धन श्रति वढत परिगृह
देत लोय । कारण सु, नहि धर्पे सु ॥१०३२॥ धनवान होय ह्व कपन जेह, परभव हि दलिद्री होत तेह | ह्र मंद कषाई सरल भांव,
श्रहि निसि वर ते पूजा
स्वभाव ॥१०३३ ॥
सदा सु,
निज वनिता संतोषी दोषत मंदरागी सर्वदा सव दुराचार जिन के
सु ।
निषेद,
परभव पावहि ते पुरिष
वेद ॥१०३४॥
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