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दोहा :
छद पं०:
बुद्धि-विलास
[ ११६ प्रारति नहि रुद्र न रहित राग, जुत धर्म सुकल ध्यांनी सभाग। जिन सेवक पालै वर्त्तसील,
कसिकै जु करन मद-मत्त पोल ॥१०२१॥ सुकल ध्यांन श्रेणी मडै, उपसम षिपक सु दोय । उपसम वाले फिरि भ्रमैं', विपकहि सिव-गति होय ॥१०२२॥
जिन प्रतिमां जिन मंदिर ठवें स, उत्तिम' धन सुभ-षेतनि वुवै सु। मुनि सदाचार श्रावक मनोग्य, सुर--लोक लहहि ते जथा--जोग्य ॥१०२३॥ पररणांमी सरल सहज जीव, सुभ भद्र भाव राषै सदीव । व मोहमंद जिनकै सुछंद, दीषत है प्रक्रति कषाय मंद ॥१०२४॥ आरंभ अलप धन अलप चाहि, तिनकै-कपोत लेस्या सु माहि। वरतै जहां पुन्य रु पाप दोय, ते मिश्र--भाव धर मनुषि होय ॥१०२५॥ परदोष सुनन मैं मन लगात, विकथा वांनी अति ही सुहात । कुट कविहि कावि सुनि हरष होय, पर--भव बहरे' उपजै सुलोय ॥१०२६॥ पदहि सुछंद जे विनि विवेक, करि मृषा पाठ विकथा विसेष । पर-निंदा भाई वहु वनाय, निज करै प्रसंसा अति वढाय ॥१०२७॥
१०२२ : १. भृमै। १०२३:१ उत्तम। १०२४ : १ धारें। १०२५ : १ सु। १०२६ : १ वैहरे।
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