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११८ ]
दोहा :
अथ सप्त नरकनि तैं निकसि जीव जो गति पावै सो वर्तन पार्श्वनाथ
पुराणोक्त
छप्पे :
पालय ||
सप्तम तैं पसु' होय देस संजम न छठे नरक तैं मनुषि होय मुनि-वृत नहि पंचम तैं वृत धरय मोषि गति कौं नहि चतुरथ तैं सिव जाय नांहि तीरथ पद सव सुभ्रवास तैं प्राय करि वासदेव' भवनहि लहय ४ ।
साधय ।
लाधय ॥
प्रति वासदेव वलिदेव फुनि चक्रवत्तिन हि श्रवतरय ॥ १०१७॥
दोहा :
छद पदरी :
बुद्धि-विलास
सो तौ जोग्य सागार कौं नांहि यारो, मुन्यौं जोग्य है नीकें जतावते हैं । करो दन पूजा गृही सुद्ध दिल सौं, जपौ प्रर्हतौं कौं भले भावते है । कहैं और की और कौं भलेमांनसौं कौं वे' डुवावते हैं ॥ १०१५॥
सीष सो तौ,
यातें
अध्यातम वहुरि, करबो आतमध्यांन । वरज्यौ गुरनि गृहस्थ कौं, जोग्य दयादि रुदांन ॥ १०१६ ॥
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१०१५ : १ ते । १०१७ : १ पश्रु ।
जो जीह भवसौं आय करि, गति लेस्या पावंत ।
पुनि या भवतें भव लहै, सो कछु वरनत संत ॥१०१८ ॥
माया चारी जे जीव दुष्ट, परकौं ठगिवे कौं चतुर श्रिष्ट । लिषि झूठ वहुरि चुगली जु षांहि, भरि झूठी साषि सु डरत नांहि ॥ १०१ ॥ उद्यौत मोह पालै न सील, लेस्या जिनके
जांनिऐं
नील ।
धर्म-हींन,
प्रारति ध्यांनी अरु ते पसु
परजाय लहै सु दीन ॥१०२० ॥
२ कैं ।
३ वासुदेव ।
संभालय |
४ धरय ।
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