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दोहा :
बुद्धि-विलास
सोवा कार्ज चौवारे हैं चेरे दासी सिंगारे हैं,
हाथी श्रावे दंतारे हैं घोरे काछी ताते हैं तातें साता ही कौं कीयो हूँ है कोऊ काहू मांनौं,
छंद भूलना :
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भारी वातें का तेतौ सारे झूठी गाते हैं ॥१००४ ॥
होणहार ही होत है, यहै कहत' सव कोय । पैं करि पुन्यं सुधर्म भवि, होरणहार सुभ होय ॥१००५॥ मंत्र मंत्र श्रोषदि सु विधि, हैं कितेक जग सार ।
पैं सरवोपरि है सु यह, जपौ मंत्र नवकार ? ॥१००६॥ यामैं प्रभु अरु साधु' की, सकल वंदनां जांनि ।
इह भव पर भव के सकल, दुष मेटन सुषदांनि ॥ १००७॥ प्रात सांझ तौ कीजिये, नित्ति नेम प्रभु ध्यांन । पैं कारिज हू करत मन, राषहु श्री भगवांन ॥ १००८ ॥ जे गृहस्थ को कहत हैं, श्रातम चितवन सार । सो कवहू मति मांनियौं, झूठी कहत लवार ॥१००६ ॥ यह तौ मुनि ही कौं कहैं, श्रातम चितवन जोग्य । पूजा दोन दया धरम, करहु गृहस्थ मनोग्य ॥ १०१०॥ केई मतवारे कहत, नांम जपो जग सार ।
कोरो जोग्य प्रतीत कौं, नहि गृहस्थ सुषकार' ॥१०११॥ पाय दर्व्य कारिज धरम, करें नही जो कोय । ता कोरे ही नांमतें, सुभ फल नहीं होय ॥१०१२ ॥ होय गृही के धन अधिक, सो परचै न लगार । कोरे भावत भाव सुभ, कैसें पावत पार ॥१०९३ ॥ धन परचं जो धर्म मैं, वहुरि लेत प्रभु नांम । सरें सकल सुभ कांम ॥ १०१४ ॥
दया धरै तिनके सदा,
गृही होय श्रध्यातमी करौ ध्यांन यौं वातें
१००५ : १A कहैत । १००६ : १A वोषदि । १००७ : १A साध । १०११ : १ सुमकार ।
२ A नौंकार ।
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श्रातमां कौ, वतावते हैं ।
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