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बुद्धि-विलास
[ ११५ व्रह्मचर्य वर्नन व्रह्मचर्य पर्वो विनां, निज तिय करि अनुराग । पर' तिय कौ सव भांत्ति तुम, करहु सर्वथा त्याग ॥८६॥ परणी तिय पर-कंन्यका, विधवा सधवा जांनि । तिनतें षोटी चेसटा, कवहु न करि मन प्रांनि ॥६॥ हस्तकर्म' वहुरयौ पसू, दासी आदि तजेहु । तीव्र भाव अति काम के, कवह नांहि करेहु ॥६६१॥
परिगृह वर्नन परिगृह को परमारण यह, क्षेत्र जु भूमि कहाय । मंदिर सुवरण धन अधिक, धान्य नाज कहवाय ॥६६२॥ दासी दास रु अस्व गज, लोह किरांणों कोय । सेज साज-जुत ढोलनी, चौकी पाटा होय ॥६६३॥ इन दस विधि को कीजिये, यथासक्ति परमाण । ताहि उलंघि'न सोचिये २, निज घर मांहि सुजाण ॥६६४॥ पंच अणुवृत य कहो, तिनकौं निजहू पालि ।
औरनि को उपदेस हू, दोजे' सुभ जिय न्हालि ॥६५॥ बहुरि कहे हैं वर्त सुभ, सोलह कारण भांनि । दस लक्षण रतन त्रये, कही करन असटांनि' ॥६६ut इन दै आदि कहे गुरनि, ग्रंथनि' मांझि अनेक । तिनकौं करिये सक्ति जुत, विधिवत धारि विवेक ॥ERut
अथ सप्त विसन वर्नन सप्त विसन ये जांनियौं, जूंवां अर परनारि । चोरी मांस सिकार मद, वेस्यां लेहु विचारि ॥६३nt
१८९:१परि। 880 : १A मांनि । ६४१ : १ हस्तकरम । २ इन दे। ३० तीव। ४ सोभी। ९६४ : वलंधि। २ सांचिए। ६६५ : १ दीज्ये। २६f: अष्टन्हि। ६९२ : १ ग्रंथन । ९६३: १ mising
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