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दोहा :
अथ तियतु कौं उपदेस वर्नन
श्रावग - कुल मैं प्राय कैं, मारि लीष हु न जोय । प्रस्ति ऊंन भोजन तरणी, ठौर न ल्यावो कोय ॥६७३ ॥ ली प्रति प्ररुं उनकी, जो न मांनिहौ सीष । तौ भव भव मैं वोझ ह्र, भले मागिहौ भीष ॥८०॥ श्रावग के घर मैं वहुरि, घर चिंडाल के मांहि । यन वार्तानि कौ भेद है, सो सठ मानत नाहि ॥८१॥ अस्ति रसोई ल्यांन कौ, तजिवो मांनें वेद ।
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बुद्धि-विलास
श्रावग प्ररु चिडाल घर, तौ कछु रह्यौ न भेद ॥ ८२ ॥ वरत करें त्यागे श्रधिक, हरित काय दे आदि । लीषह तन जो नां तजैं, तौ सव किरिया वादि ॥ ८३ ॥
असत्ति वृति' है वचें जीव झूठी
श्रथ सत्ति वर्तन
दूसरो, झूठ न बोलहु मित । कहें, तौ वोलिये
+ (976-983) does not occur in B.
९८४ : १A विरति । २ तू बोलि । ६८५ : १ चोरी बर्नन । ६८८ : १दीज्ये ।
२A भात ।
चोर्य व्रत वर्नन '
तीज व्रत चोरी तजरण, चोरी करहु न भोलौ लेषा मैं न करि, पडी वस्त्र तजि धरोहरि धरि मरि गयो, सिंह धन घरहि न अनाचार लागै सु अव, तिनकी है वहु चोरी की ल्याई वसत, लेहु न राज मनाई सों तजौ, भांति अधिक चोरी तरणी, हक्क हिसावी वाजिवी, लीजे दीजे' भ्रातरे ॥८८॥
थौडे
घाटि न कवहू
कौ लौं कहिये वात ।
३ A नचित ।
निचित ॥ ८४ ॥
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कोय ।
लोय ॥८५॥
राषि ।
साषि ॥ ८६ ॥
मोलि ।
तोलि ॥८७॥
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