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बुद्धि-विलास
[ ११३ फिरवो फिरवावो विनां काजि, करिये न, लगत है दोष साजि ॥९७०॥ जल माड गरम भुव मति नषाय, सीतल' ते अगनि न दै वुझाय । ऊन्ही सीलौ जल मति मिलाहु, सारे सांठे कौं मति चषाहु ॥९७१॥ वहु जीव गांठिया की मझारि, करि चूंषि गंडेरी वहु प्रकारि । वदरीफल कवर षाय मत्ति, बंदारै' तौ लट कटै सत्ति ॥९७२॥ सारो मुष मैं दे लट सु जाय, थिचि जैहै लट जो थेचि षाय । यात याकौं तजि देहु जान,
फुनि और सर्व करिये प्रमान ॥९७३॥ जोमिन कवहू पांति, तू विन जाणयां नर तरणी। मांस दोष इह भांति, लागत है सव नरनि कौं ॥९७४॥ घिरत निमत्ति हू कोय, गाय' भैसि नहि राषिये । हिंसा अति ही होय, अलप नफौ टोटौ अधिक ॥९७५॥ षेती निज घरि संत, करिये नांही सर्वथा।
लागै दोष अनंत, ताकौं कवि वरणि न सके ॥९७६॥ जीव जाति के भेद छ, इक थावर त्रस ऐक । तामैं हिंसा त्रसनु' की, करहु न गहिकै टेक ॥९७७॥ थावर कौ तौ प्रावसिक, लागत है निति पाप । सोहू हिंसा-भाव तजि, टलै सु टालि प्रताप ॥७॥
सोरठा :
दोहा :
९७१ : १ सोला। २. चुषाहु । ९७२ : १A बंदारय। ९७४ : १. निर तरणी। ९७५! १ गाइ। ९७७ : १त्रिसन।
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