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दोहा :
छंद पदरी :
बुद्धि-विलास
पिलावे जुंवां भांगि श्राफू तमाषू, मगी दे मुकररै तियाकै भिलावू । इनैं आदि संसार मैं वस्त हिंसा, दिऐं दोष लागे कहो का प्रसंसा ॥५७॥
दारु
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आफू
विचार |
कहियतु ए षोटे विराज, जिनतें उपजै पाप । तो काहे कौं कीजिये, गहि श्रावग की छाप ॥५८॥ सावरण मद लोह जाति, तिल लूंरंग सिघाड़ा चलित कांति । वोधौ अन सहत सु कंद मूल, गुड़ तेल नीलि इन आदि सवै व्यौपार तजौ भवि लुण्यो घटिका पीछे तवाय ' लीजे नचीत ॥ ६० ॥ निज कारिज रौंष हरचौ न काटि, षेती मति करि मति तोलि घाटि । उच्चाटन श्रौ वसिकरन मंत्र, इन आदि और श्रौषधि 'रु जिनमें हिंसा कौ लगे दोष, सो न करि रहौ' गहिर कैं संतोष ।
द्वै राषि मीत,
तंत्र ॥६६१॥
पर जीवन कौं दुष कष्ट जांनि,
दे मति तजि श्रारति रौद्र ध्यांनि ॥६२॥
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६५६ : १ सहैत । ६६० : १ तवाइ । ६६१ : १ A वोषधि । ६६२ : १ गहौ । २ रहि । ६६३ : १ सिकरे ।
हिंसा
करि
समूल ॥५६॥
प्रकार,
हिंसक जीवनि पालिऐ नांहि, कुत्ता विल्ली वुगवो तूती मैंनां सिकरा जलकुही वाज चंडूल
सतांहि ।
सिचांरग,
वारण ॥६३॥
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