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बुद्धि-विलास
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अथ श्रावग-धर्म वर्नन दोहा : अनहिंसा रु अचौर्य फुनि, (अ)सति' ब्रह्मचर्य पालि ।
परिगृह करि परमारण ऐ२, अणुवत पंच सम्हालि ॥६३६॥ हिंसादिक कौं त्यागि हौ, सप्त विसन के साथ । पलिहै जिनमत तोहि तव, जपिहै जिन-गुन-गाथ ॥९४०॥ सुनहु अहिंसा को कथन, भविजन अति मन लाय । जीव जंत प्रांरगी सकल, तिनते रहु समभाय ॥४१॥ जीव-वध' मति कीजियो, कवहू मन वच काय । दुष-हू काहू जीव कौं, वस लागत मति ध्याय२ ॥६४२॥ पुंन्य न पर-उपगार सम, जो ह करवा जोग्य । पर-पीड़न सम पाप नहि, है यह धर्म मनोग्य ॥९४३॥ भोजन निसि कौं करन तजि, रांधे भी मति कोय । जीव पड़े जामैं अधिक, मरै सु हिंसा होय ॥६४४॥ फुनि हिंसा के करन के, तजिए सकल उपाय । निज मन वच तन ते वहुरि, और सुनौं भविराय ॥९४५॥ हिंसा करवो त्यागि फुनि, त्यागि देन उपदेस । वृथा लगै उपदेस तें, अनरथ दंड विसेस ॥९४६॥ सो यह अनरथ दंड कौ, वरनन कहौं वनाय ।
गृथनि के अनुसार तै, सोहू तजौ सुभाय ॥९४७॥ छंद भुजंग प्रयात : कहै एक प्राछी हवैली वनावो,
कुवा वाग बाड़ी तलाई षुदावो' । परयौ मेह कीजे अवै क्यौ न घेती, पलैगो कडूवा सवै नाज सेती ॥४॥ भए कापड़ा मैल मैं सो धुपावो, अवै कातरया क्यौं न वेगे करावो। पड़े षाट मैं जीव धूपै नषावो, परी सीस औ वस्त्र मैं जूं कढावो ॥६४६॥
६३६ : १ (अ) injured. २ यह । ९४२ : १ वद्ध। २ द्याय। ९४८ : १Aषनावो।
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