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बुद्धि-विलास
जो मुनि हूं नांहीं मिले, श्रावक हू नहि होय । तौ भूषे कौं दीजिए, दया भाव करिलोय ॥८८॥
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दांन वर्नन
च्यारि ।
जिनमत मांहीं दांन ऐ, गुरनि वताये सो सवही को देहु भवि, मनमैं हरष विचारि ॥८८६ ॥ लषिकें जांनि सुपात्र कौं दीजे दांन प्रहार । औरनि कौं बुध्या निमति, देहु दया उर धारि ॥८७॥ वोषदि ' जोग्य वरणाय करि, जथा-जोग्य तुम देहु । रोग मिटै रोगीनु कौ, तुम भव भव सुष लेहु ॥८८॥ ग्रंथ जिते जिनमत तर, तिन्हें लिषाय स्वरूप | कमडल पोछी वस्तिका, दीजे गुरनि अनूप ॥ ॥ जीव जंत प्रांरणी सकल, ताक मारत कोय । ताहि वचाय उपाय करि, अभय दांत यह जोय ॥८०॥ ऐही च्यारचौ दान हैं, महा जगत मैं सार । या भव वारापार तैं, ले पौंहचावें पार ॥८६१ ॥ वहुरि श्रावकनि कौं कहे, दक्षि करन ए च्यारि ।
पात्र सकल अरु सम दया, तेहू देहु विचारि ॥ ८२ ॥ पात्र मुनिश्वर फुनि कहे, श्रावक समकितवान । भोजन दे फुनि वस्तिका, कमडल पीछी दांन ॥ ८३ ॥ सकल दक्षि यह जांनि तू, परिग्रह कौ करि त्याग ।
सार ॥८५॥
धांम कुटंव धन श्रादिसौं तजें सर्व अनुराग ॥ ८६४ ॥ सुत दे आदि बुलाय सव, सौंप घर कौ भार । आप निरापेषी रहै, पालै तप व्रत समदति याकौं कहत हैं, साध धर्मी ह्व अथवा वहण सु भांणिजी, होत जवांईं हय गय रथ धन धान्य घर, वस्त्र श्राभरण कोय ।
कोय |
सोय ॥ ८६ ॥
इन दें श्रादि जु दीजिए, जथा-जोग्य जिह होय ॥८७॥
८८८ : १ श्रौषधि ।
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