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________________ बुद्धि-विलास [ ६७ प्रथम हि षेत्रपाल कौं पूजौ तेल सिंदूर धूप ले दूजौ । बटुक दीप फल गुड लै भूरि', पढ़िकै मंत्र पूजि भरपूरि ॥ ८१२ ॥ फुनि प्रभु कौं करिकै आह्वान, पुस्पतिं पढि हवन के पुत्र जु होय, प्रभु के चरननि परि आ. स्वामिन संवौ, इत्यादिकां त्रिपदि मंत्र सुजांन । मेल्हौ लोय ॥ ८१३॥ मंत्र पढे । मंत्र. ॐ ह्रीं श्रीं श्री पर्म ब्रह्म प्रतरो वुतरावुतर संवौं षट् श्राह्वाननं ॥ अत्र तिष्ठ तिष्ट ठः ठः स्थापना अत्र मम सनेहतौ भव भव वषट् सन्निधापनं ॥ दोहा : चढावो प्राठ भवि, प्रभु की ओर निहारि ॥ ८१४ ॥ जल गंगादि सुगंध करि, धार चरन प्रभु देहु । सो [ लुटि ] के तीनों जगत, करत पवित्र सु ऐहु ॥ ८१५ ॥ ' ॐ ह्रीं ग्रह श्री परम ब्रह्मणे अनंतानंत ज्ञांन सक्तये ॥ इदं मंत्र ॥ दोहा : मन वच तन करि सुद्ध सव, मुषतें मंत्र उचारि । द नूतन धरे वनाय ॥ ८१६ ॥ १ पंचम पद निरवान । दर्व्य दयं परि मंत्र यह, पढौ भवि सु मन लाय । और पढत सो जोग्य नहि, गरभ' जनम तप ग्यांन अरु, यह मुषतै उच्चारिक, दर्व्य चंदन श्ररु कपूर लै, केसरि मद्धि चरच श्री प्रभु के चरन, भव प्रताप मिटि जाय ॥ प्रषित सुगंधित ऊजले, कुंद पुस्प सम प्रांनि । चढाय महांन ॥ ८१७ ॥ घसाय । पांच पुंज प्रभु प्रग्र धरि, मनु पुनि पुंज समान ॥१८॥ १ कुंद कंज मंदार अरु, पहुप मालती जाय । भ्रमर गुंज तिन परि करत, सो जिन चरन चढाय ॥८१॥ ८१२ : १A भूरी । २ A पूरी । ८१३ : १ पहुप । २ missing ८१५ : १ गंगादिक जल ल्याय कैं, सउगंधित करि लेहु । अंधि पीठ जिन बिंब के, जल धारा कौं देहु ॥ ८१६ ॥ ८१६ : १ Not at all in B. ८१७ : १ गर्भ । ८१८ : १ समांनि । ८१६ : १ संदारु । Jain Education International २ जन्म । †The entire mantra not given in B. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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