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बुद्धि-विलास
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प्रथम हि षेत्रपाल कौं पूजौ तेल सिंदूर धूप ले दूजौ । बटुक दीप फल गुड लै भूरि', पढ़िकै मंत्र पूजि भरपूरि ॥ ८१२ ॥ फुनि प्रभु कौं करिकै आह्वान, पुस्पतिं पढि हवन के पुत्र जु होय, प्रभु के चरननि परि आ. स्वामिन संवौ, इत्यादिकां त्रिपदि
मंत्र सुजांन ।
मेल्हौ लोय ॥ ८१३॥ मंत्र पढे ।
मंत्र.
ॐ ह्रीं श्रीं श्री पर्म ब्रह्म प्रतरो वुतरावुतर संवौं षट् श्राह्वाननं ॥ अत्र तिष्ठ तिष्ट ठः ठः स्थापना अत्र मम सनेहतौ भव भव वषट् सन्निधापनं ॥
दोहा
:
चढावो प्राठ भवि, प्रभु की ओर निहारि ॥ ८१४ ॥ जल गंगादि सुगंध करि, धार चरन प्रभु देहु । सो [ लुटि ] के तीनों जगत, करत पवित्र सु ऐहु ॥ ८१५ ॥ ' ॐ ह्रीं ग्रह श्री परम ब्रह्मणे अनंतानंत ज्ञांन सक्तये ॥ इदं मंत्र ॥
दोहा :
मन वच तन करि सुद्ध सव, मुषतें मंत्र उचारि ।
द
नूतन धरे वनाय ॥ ८१६ ॥ १ पंचम पद निरवान ।
दर्व्य दयं परि मंत्र यह, पढौ भवि सु मन लाय । और पढत सो जोग्य नहि, गरभ' जनम तप ग्यांन अरु, यह मुषतै उच्चारिक, दर्व्य चंदन श्ररु कपूर लै, केसरि मद्धि चरच श्री प्रभु के चरन, भव प्रताप मिटि जाय ॥ प्रषित सुगंधित ऊजले, कुंद पुस्प सम प्रांनि ।
चढाय
महांन ॥ ८१७ ॥
घसाय ।
पांच पुंज प्रभु प्रग्र धरि, मनु पुनि पुंज समान ॥१८॥
१
कुंद कंज मंदार अरु, पहुप मालती जाय ।
भ्रमर गुंज तिन परि करत, सो जिन चरन चढाय ॥८१॥
८१२ : १A भूरी । २ A पूरी । ८१३ : १ पहुप । २ missing
८१५ : १ गंगादिक जल ल्याय कैं, सउगंधित करि लेहु । अंधि पीठ जिन बिंब के, जल धारा कौं देहु ॥ ८१६ ॥ ८१६ : १ Not at all in B.
८१७ : १ गर्भ । ८१८ : १ समांनि । ८१६ : १ संदारु ।
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२ जन्म ।
†The entire mantra not given in B.
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