________________
बुद्धि-विलास तुम दरसन तें देव दोष दुष दालिद टलिहैं ।
तुम दरसन से देव अमित मनवंछित फलिहै ॥ करुनांनिधांन तारनतरन अव मैं तुम दरसन करिव ।
वर तीन प्रथम जय निरसही कहि-कहि कर्मनकौं हरिव ॥८०३॥ दोहा : नमसकार अष्टांग करि, दे प्रदक्षिणां' तीन ।
जिन गुन पढि दरसन करहु, ह प्रभु पद तल्लीन ॥८०४॥ अरिल : प्रतिमा' ग्यारह प्रांगुल लौं ह धात की,
____ताहि पूजि डावै धरि यह सुभ वात की। होय जुदी जायगा तहां डव्वा रहै,
घर मैं कबहु न राषिवि राजी गुर कहै ॥८०५॥ दोहा : अव पूजा की विधि सुनहु', भविजन अति मन लाय।
जैसे भाषी है गुरनि, तैसें २ कहौं वनाय ॥८०६॥ चौपई : वेदी' तै२ लषि दिसि ईसांन, मेर काठको थापि सुजांन ।
तापरि' जल वटि धारिए चाहि, पांडुसिला की नकल सुताहि ॥८०७॥ वेदी तें जिन प्रतिमां लेय, ता जलवटि परि प्राय धरेय । वहुरि दसौं दिगपालनि जान', जिनको विधिवत करि अाह्वान ॥८०८॥ पूजि करो तिनको सनमान, जथा जोग्य गुर-वचन प्रमांन । फुनि ह अर्घ प्रभू मुष पासि, विधि भिषेक प्रभु' करहु हुलासि ॥८०६॥ कलस पंच भरि के सुनि सोष, क्रमतें जल फुनि रस लै ईष । घ्रत अरु दूध-दही सुभल्पाय, वहुरो सर्व वोषधी' वनाय ॥१०॥ जुदे-जुदे सनान करवाय, अधिक- अधिक वाजिक वजाय । फुनि अंगोछि प्रतिमा सुभ काय, थापि ठौंर निज श्री जिनराय ॥११॥
८०४ : १ प्रदक्षरण । ८०५ : १ प्रतमा। २ ताही। ८०६ : १ सुनौं। २ सो कछु । ८०७:१एक। २ वोर। ३ मेरु। ८०८ : १ जांनि। ८०९:१जिन। ८१० : १ वोषदी।
४ काष्ट ।
५ तिनपरि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org