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सोरठा:
दोहा :
बुद्धि-विलास
[ ६५ वृषि तलें की होय, फुनि ह नंदी कूप को। व तलाव की कोय, ह्व मल-मूत्र समीपि' की ॥७९२॥ सो मांटी मति लेहु, धोवन कौं निज हाथ तुम। हिंसा होत अछेहु', यात वरजी है तुम्हें ॥७६३॥ वांम हाथ वर तीन, प्रासुक मांटी ते धुपै ।
फुनि मांटी जल लोन, दोऊ धोवै तीन वर ॥७६४॥ दांतिण सूको कोजिये, जो सूको न मिलाय। तौ पांचा परवी विनां, प्रौर कीजिये चाय ॥७९॥ जो कदाचि दांतिण तरणों, मिले नही संजोग । तौ द्वादस कुरला करै, मुष सुध होय मनोग ॥७९६॥ अव सनांन के करण की, विधि भाषत हौं तोहि । जीवजंत लषि दूरि करि, फुनि आसुक भुव जोहि ॥७६७॥ प्रथम लगावो' तेल कौं, फुनि जल गरम मंगाय । पहलै पग कटि धोय फुनि, मस्तगि जल नषवाय ॥७९८॥ करें मूत्र धोवै करनि, मइथुन अंति' संनान । फिरि मल मोचै तौ करै, अर्ध सनांन प्रमान ॥७॥ करि सनांन अंग सुचि, फिरि सामायक ठानि । नाम प्रभू को लेहु भवि, विरियांतनै निदांनि ॥८००॥ वहुरि प्रभू की कीजिए, पूजा प्रष्ट प्रकारि । धरि प्रतिमां तौ घरां, के देहुरा मझारि ॥८०१॥ प्रभु के सनमुषि' प्रथम ही, ठाढ़ो ह कर जोरि । दरसन करि विनती करहु, विधिवत सीस निहोरि ॥८०२॥
छप्पै :
तुम दरसन तें तुम दरसन से
विनती" देव सफल मो मनिष जनम-हुव । देव सकल अघ कष्ट टरि-गयव ॥
७६२ : १ समीप। ७६३ : १ अछेव। ७९८ : १ लगावै। ७६४: १ अंत। ८०२ : १ सनमुष। २ करि जोरि। ८०३ : १B missing |
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