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बुद्धि-विलास
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दुतिय वोहरा कुल गहलोत, और सकल जांनौ वह पोत । कुल झाला सु गोत चरकनां, नांदिल पूजत हैं सुभ मनां ॥७६८ ॥ ए सव ग्यारह गोत सुभये, वंस इष्वाक मांहि वरनये । प्रव सुनि कुल सो रई प्रसिद्ध, गोत नोसरे दस ता-मद्धि ॥७६६ ॥ कुल सोलंषी प्रांमिरिण देव्य, गोत श्राठ मैं है प्रति सेव्य | सोनी लौहग्या फुनि सोहनी, मूंछ पांपल्या गदया भनी ॥ ७७०॥ सृपत्या सहित भये हैं सात, बहुरि पावड़या है है भांत' । इक पांवड़या नमैं मोहनी, दुतिय नमैं प्रांमिरिण कौं गुनी ॥७७१॥ कुल सुनार द्वै प्रमिरिण नमैं, वज्रहथा फुनि वज-गोत मैं ।
ए दस वंस सोरई कहे, द्वै हरि-वंस माझि हू गहे ॥७७२ ॥ नरपल्या निरगंधा गोत, कुल है दहरचा और नहि होत । देवी नांदवि र नमरण करांहि, सुषी होत तव या जग मांहि ॥७७३ ॥ ऐ सव भये गोत चौरासी, देवी यनको सकल प्रकासी ।
दोहा :
तव तें पूजन लगे दिहारी, सव श्रावगनि प्रतंग्या धारी ॥ ७७४॥ चौपई' : लिषी सुरगी जैसी प्रति भासो, लषि विधिवत मति कोज्यौ हांसी । इन श्रावग के आपस मांहि, सगपरण है फुनि पांति जिमांही ॥७७५॥ या विधि मुनि सवकौ हरचौ, रोग दोष दुष कष्ट । श्रावग ठेहराये' विमल, सबै महाजन सिष्ट ॥७७६ ॥ तब श्रावकनि करी अरज, अहो महा मुनिराय । क्रिया धर्म श्रावग तरणौं, मग हम देहु वताय ॥७७७॥ वोले मुनि वृझी भलें, सव सुनिए मन लाय । जिनमत के अनुसारि सव, देहौं तुम्हें सुनाय ॥ ७७८ ॥
प्रथम कहौं किरिया कछू, जो सधि श्रावै सार । -तामैं कमी न कीजियो', करिकैं परम विचार ॥७७६ ॥ दोय घड़ी के प्रात उठि, मन मैं जपि नवकार । बहुरि करौ किरिया सकल, जिह प्रकार आाचार ॥७८०॥
७७१ : १ भांति । २ श्रमरिण । ७७३ : १ नर पोल्या । २ नांदल ।
७७५ : १ चौपई ।
७७६ : १ ठहराए । ७७६ : १ कीजियौ । ७८० : १ कहौं ।
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