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________________ ८८ ] बुद्धि-विलास तवें उपद्रव लषि पुर माहि, नर नारी सवहीं निकसांहि । नगरि नजीक गुढे करवाय, वसे तहां सव पुर के प्राय ॥७०८॥ असे होमें सुनि मुनिराय, यसोभद्र तव कियो उपाय । सिष्य' जिनसेनि हुतौ मुनि साहु, ताकौं कही षंडेले जाहु ॥७०६॥ थापो श्री जिन-धर्म प्रवीन, जैसै चलि आयो प्राचीन । काहू भाति संक मति करो, प्रभु को नाम हिये मधि' धरौ ॥७१०॥ तव जिनसेन' षंडेले प्राय, श्रावक श्रेष्टी लये वुलाय । तिनको जुदौ वसायो गुढौ, सव कौं कही नाम जिन पढौ ॥७११॥ देव्य अराधी चक्रेस्वरी, ताकौं मुनि यह पाग्या करी। सव जैनिनु को रक्षा' करो, रोग व्याधि इनको सव हरो ॥७१२॥ देवी मुनि की प्राग्या पाय, जैनिनु को दुष दयो मिटाय । तवें सुषी सव श्रावक भये, समाचार नृपहू मैं गये ॥७१३॥ सुनि आयो षंडेल-गिर भूप, वंदे मुनि के चरन अनूप । विनती करी अहो मुनिराज, तुम हो नर भव जलधि जिहाज ॥७१४॥ कौंन पाप पिरजा छीजंत, सो मोकौं कहिए विरत्तंत । छीजत भये वरष दस दोय, काहू भांति सांति नहि होय ॥७१५॥ तव मुनि भाषी प्रहो महीस, जिनमत धारी महा मुनीस। तप करते या नगर ढिगारि, विप्रनु होमे जग्य मझारि ॥७१६॥ घोर पाप उपज्यौ पुर मांहि, तातें सव नर नारि छिजांहि । यह विरतांत सुण्यौ नृप सवै, दुषी भयो मन मैं अति तवै ॥७१७॥ विप्रनु तै भूपति अनषांहि, क्रोध करन लागे मन मांहि ।। तव मुनि कही अहो नर ईस, सोच फिकर मति करहु नरीस ॥७१८॥ विप्र प्रोहितनु सामिल होय, तुम तें तो यह राषी गोय । कियो जग्य होमैं मुनि घन, तातै तुम्हें दोष नहि वनैं ॥७१६॥ तव नृप कही अहो रिषराय, दोष मिटै सौ कहौ उपाय । औरनि तैं यह मिट न पाप, तुमही मेटौ जग सताय ॥७२०॥ ७०६ : १ सिषि। ७१० : १ मध्य। ७११ । १ जिनसेनि । ७१२:१A रक्ष्या । ७१७ : १ जब। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jaineli
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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