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बुद्धि-विलास
वर्ष' ऐक-सौ ग्यारह अंग, चौदह पूरव जुत सु अभंग । तिनमैं विष्णु मुनी नदि मित्र, अपराजित मुनि भये पवित्र ॥६४०॥ गोवरधन प्रर भद्र सुवाहु, ऐही पांच भये मुनिनाहु । वर्ष ऐक-सौ असी' जांनि, ताकै ऊपरि तीन वषांनि ॥६४१॥ ग्यारह अंग दस पूरवधारी, भये मुनी ग्यारह अविकारी। प्रथम विसापाचारिज जानौं, वहुरि पोष्टिलाचारिज मांनौ ॥६४२॥ भये षित्रियाचारिज मुनी, जय फुनि नागसेनि मुनि गुनी। सिद्धारथ ध्रितषेनि मुनिंद, विजय वुद्धि मांन गुनद ॥६४३॥ गंगधर्म-सेनि मुनिराय, ऐ सब ग्यारह भये सुभाय । वर्ष दोयसै ऊपरि वीस, ग्यारह अंग धरें मुनि ईस ॥६४४॥ नक्षित्राचारिज जयपाल, पांडु वहुरि ध्र वसेन विसाल । कंसाचारिज हैं गुनषांनि, ए पांचौ ही जग सुषदांनि ॥६४५॥ वर्ष एक सौ वहुरि अठारा, एक अंग इनहूं नै धारा । सुभद्र यसोभद्र मुनिराज, भद्रवाहु जग के सिरताज ॥६४६॥ लोहाचारिज लौ अंग जानें, छस-तियासी वर्ष वषानें। बहुरि अंग जव विछति जांनी, तव उपजे मुनिवर श्रुत-ग्यानी ॥६४७॥
अथ पट्टावली वर्नन दोहा : दिग्गंवर पट्टावली, अव सव सुनि हित ठांनि ।
भद्रवाहु यक अंगधर, तिनंही ते ले जांनि ॥६४८॥ चौपई : श्री गुरु भद्रवाहु मुनि भयो, संवत च्यारि तणे पट लयो।
तिनकै पट्टि भये गुनषांनि, संवत छन्वीसा के प्रांनि ॥६४६॥ गुप्तगुप्त प्राचारिज एक, नाम तीन तिन लहे प्रतेक।। दुतिय नाम अर्हदवलि लह्यौ, त्रतिय विसापाचारिज कह्यौ ॥६५०॥ तिनकै पटि' भटारक भये, जहां-जहां जे-जे निरमये। माधनंदि छव्वीस साल, भये बहुरि जिणचंद विसाल ॥६५१॥
६४० : १ बरष। ६४१ : १ प्रस्सी । ६५१ : १ पाटि । २ छत्रीस।
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