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बुद्धि-विलास ऐती विधि इनहूं तजी, गुर नमिवो जग सार । केसरि जिन-पद चरचिवो, पुष्प चढांवन चारु ॥६२८॥ भोजन तनक चढात नहि, सषरो कहि त्यागंत।। दीपग की ठौहर सवै, रंगि के गिरी धरंत ॥६२६॥ न्हांवन करत न विव को, इन है आदि कितेक । भली तजी षोटी गही, तेको कहै प्रतेक ॥६३०॥ तिनकै गुर नाहीं कहूं, जती न पंडित कोय । वही प्रतिष्टा आदि की, प्रतिमां पूजत लोय ॥६३१॥ वही प्रतिमां ग्रंथ वै, तिन मैं वचन फिराय । ठांनि और की और ही, दोनों पंथ चलाय ॥६३२॥ फिरि' यक निकस्यौ पंथ अव, है सिरौंज को वोर । तारण पंडित ने कियो, आप अकलि के जोर ॥६३३॥ देस मालवा मद्धि तिन', नयो देहुरो ठांनि । प्रतिमां पधरावत नंही, पुस्तग पूजत जांनि ॥६३४॥ असे निकसे मत वहुत. मन-मद धरि विपरीति । यह पंचम कलि काल की, फैलि गई जग रीति ॥६३५॥ परि जे अव संसार मैं, जपत मंत्र नौंकार । तिनतें वहसि न ठांनि हैं, रे भवि सो मतसार ॥६३६॥
अथ परिपाटी भट्टारकांनि की वर्नन दोह।' : अव परिपाटी हू कछुक, सुनि जु भये जगचंद ।
महावीर प्रभु प्रादि मुनि, भट्टारक गुणवृंद ॥६३७॥ चौपई : श्री प्रभु वर्धमान जिनराय, ते तौ मुक्ति पहुंचे जाय ।
तिनके पीछे केवल-ग्यांन, वासठि वरष रह्यौ परमांन ॥६३८॥ तामैं गोतम गणधर भये, वहुरि घरमांचारिज ठये। तीजे जंवू वरिणक-कुमार, ऐ तदभव पहुचे सिव द्वार ॥६३६॥
६३३ : १ फुनि। ६३४ : १ तिनु । ६३७ : Amissings
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सक्षार or saltish foodsdifferent from पक्वान्न।
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